Nayi kavita: Swaroop aur pravrittiyan, Nai kavita Aur uske samikshatmak pratimano ka adhyayan, Modern Poetry, Nai Kavita- Swaroop Aur Pravrittiyan in Hindi.
Nayi Kavita In Hindi
हिंदी नई कविता : कथ्य और शिल्प-दोनों ही दृष्टियों से नई कविता महत्वपूर्ण उपलब्धि, नई कविता का स्वरूप, उसके दृष्टिकोण, प्रतिविम्ब, प्रतीक, उपमानों, उसमें वर्णित संदर्भों आदि के परिज्ञान के लिए वर्तमान परिवेशों को जानना वांछनीय है। आजादी बाद से ही आजतक देश में मानव-शोषण, नारी-विमर्श, दलित-विमर्श, मजदूर, किसान, युवा पीढ़ी, दहेज, नई चेतना आदि की समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं, इनके साथ ही बेकारी, घूसखोरी, अराजकता, गरीबी, अत्याचार, भ्रष्टाचार, सत्तालोलुपता समस्त विशेषणों, प्रतीकों, शैली एवं शिल्प के साथ वर्तमान परिदृश्यों पर घनीभूत नजर डालकर कुछ महत्त्वपूर्ण नामों-सनातन सूर्योदयी कविता, युयुत्सावादी कविता, अस्वीकृत कविता, अकविता, बीट कविता, ताजी कविता, सहज कविता, नवगीत, अगीत आदि से प्रबलतम अभिव्यंजना के साथ परिवर्तनकारी तेवर में सामाजिक चेतना की प्रकाशमान ज्योति से जन-मानस को जाज्वल्यमान करने में प्रयास-रत हैं।
Nayi Kavita aur Uski Pravrittiyan
नई कविता और उसकी प्रवृत्तियाँ
काव्य का संबंध अपनी व्यापक परंपरा और अर्थगर्भिता के साथ मानव की रागात्मक वृत्ति से रहा है और रहेगा जिसका अर्थ है-ताल, लय, यति और गति आदि के नियम से बंधी रचना अर्थात् कविता। किन्तु आज के युग की कविता में गेयता, रूढ़ छंदोबद्धता, स्वर, लय और ताल के साथ ही रागात्मकता का पूरा त्याग परिलक्षित होता है। फलतः कविता अपना नाम और स्वरूप का अस्तित्व समाप्त कर मुक्त छंद से भी हटकर छंद मुक्त बन गई है, फिर भी यह नया उपमा, उपमेय, प्रतीक, बिम्ब आदि से मंडित आज वर्तमान है जिसको ही नई कविता कही जाती है।
हिन्दी-साहित्य में प्रगतिवाद की एकांगिकता के फलस्वरूप प्रयोगवाद का उदय हुआ जिसकी प्रवृत्ति की झलक सन् 1938 में प्रकाशित 'रूपाभ' में मिलती है। किन्तु सन् 1943 में 'अज्ञेय' के प्रथम 'तार सप्तक' के प्रकाशन ने प्रयोगवाद का पूर्ण रूप प्रस्तुत किया। इस समय तक समाज के सारे 'फ्रेम' और 'स्ट्रचर' टूट-फूट गए थे। प्रगतिवादी कविताओं में समाज के असंतोष, घुटन, संशय, क्षोभ आदि का उल्लेख होने लगा था। इसके साथ ही प्रयोगवाद ने प्रगतिवाद की छूटी सत्यता, वैयक्तिक कुंठा, निराशा, अनास्था, घुटन और अहम् को अपना विषय बनाने के साथ-ही-साथ दमित काम-वासना और एकाकीपन की पीड़ा को भी वाणी दिया।
'तार सप्तक' के 'दूसरा सप्तक' और 'तीसरा सप्तक' के गीतों को प्रयोगवादी विशेषताओं का भरपूर विकास मिला, परन्तु 'चौथा सप्तक' निकलते-निकलते प्रयोगवाद एक बहस की वस्तु बन गया। प्रयोगवादी कविताओं को लोग शिल्प और शैली की मौलिकता के साथ व्यंजनात्मक चमत्कार कह कर झुठलाने लगे। प्रयोगवाद अहमनिष्ठ व्यक्तिवाद से जुड़ा तो अवश्य, परन्तु सामाजिक जीवन के साथ किसी प्रकार का ताल-मेल स्थापित न कर सका। इसमें विद्रोह की भावना अतिव्याप्त ही नहीं, वैचित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति से बोझिल भाषा और शैली का मात्र एक नया प्रयोग बनकर रह गया जिससे काव्य में सम्प्रेषणीयता का अभाव होने लगा। कविता के वर्ण्य, टूटे-फूटे, कृत्रिम उपनाम, गद्यात्मकता, अस्पष्ट चित्र आदि उलझनपूर्ण चिंतन बनकर रह गए। ऐसी कविताओं में हृदयगत भावों और रागात्मिक वृत्तियों का पूरा अभाव हो गया। वैज्ञानिक तथ्यों और सत्य की खोज में मस्तिष्क और बौद्धिकता का पल्ला पकड़ कर काव्य में नया प्रयोग होने लगा।
इन्हीं सब कारणों से सन् 1951 में प्रकाशित 'दूसरा सप्तक' में आत्मान्वेषण की बात कही जाने लगी और यहीं से 'नई कविता' का उदय हो जाता है। इसी समय अज्ञेय ने 'नई कविता' के नाम का प्रयोग किया-"मैं आग्रहपूर्वक यह कहना चाहता हूँ कि नई कविता की-जिसके लिए कुछ 'प्रयोगवादी' शब्द अपूर्ण और पूर्वग्रह युक्त जान पड़ता है। मूल प्रवृत्तियाँ इसी देश की हैं।" इसलिए हम कह सकते हैं कि नई कविता प्रयोगवाद का ही दूसरा नाम है, परन्तु प्रयोगवाद से भिन्न इस अर्थ में है कि जहाँ प्रयोगवाद अपनी अभिव्यक्ति और शिल्प में निर्जीवता और कृत्रिमता के कारण जन-जीवन से विलग होने से मरणशील लगने लगा, वहीं नई कविता उसको नवजीवन देकर अपना स्वरूप उभारने में सफल होने लगी।
ऐसे तो अज्ञेय ने सन् 1951 में नई कविता के उदय की बात कही है, परन्तु डॉ. शम्भुनाथ सिंह ने लिखा है-"सामान्यतः सन् 1950 के बाद की कविता को प्रयोगवाद से भिन्न करने के लिए नई कविता का नाम दिया जाने लगा और यह नाम अब स्वीकृत भी हो चुका है।"
वस्तुतः प्रयोगवादी अतुकान्त एवं मुक्त छदों के प्रयोग से हटकर गीत (कविता) को अधिक संगीतात्मक एवं भावपूर्ण बनाने के लिए कवियों ने 'प्रतीकों' के प्रयोग करने के लिए प्रतीकवाद को खोज निकाला, तो इसके प्रभाव से प्रयोगवादी कविताएँ अधिक संगीतात्मक और प्रेषणीय बनने लगी जिससे एक नई काव्य प्रवृत्ति का उद्भव हुआ जिसको नई कविता का नाम दिया गया।
सन् 1954 में डॉ. जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'नई कविता' संकलन से नई कविता का स्वरूप निखर कर प्रकाश में आ गया। उसी 'नई कविता' के अंक में उन्होंने रसानुभूति के स्थान पर 'सहअनुभूति' को खोजा और कहा- "मेरा निश्चित मत है कि आज का साहित्य रसानुभूति के आधार पर नहीं सहअनुभूति के आधार पर व्याख्यायित किया जा सकता है और इतना ही नहीं, सह-अनुभूति रसानुभूति के मूल में भी निहित है। उनके अनुसार रसानुभूति में जहाँ केवल भाव-विस्तार ही अभिष्ट रहता है, वहाँ सहअनुभूति के लिए भाव और दृष्टिकोण दोनों का विस्तार अपेक्षित है।"
डॉ. जगदीश गुप्त ने नई कविता के रूप-विधान से संबंधित एक महत्वपूर्ण तथ्य को भी प्रस्तुत किया है, वह अर्थ की लय है। वे कहते हैं- "श्रेष्ठ कविता के लिए शब्दार्थ का संयुक्त रूप लयान्वित होना आवश्यक है, किन्तु कविता को अर्थ-प्रधान मानने के बाद केवल अर्थ की लय के सहारे सर्जित, ऊपर से गद्य जैसी लगने वाली रचना को कविता के क्षेत्र से बहिष्कृत नहीं किया जा सकता।" इसीसे कविवर सुमित्रानन्दन पन्त ने लिखा है-"छंदों की दृष्टि से नई कविता ने किसी प्रकार के महत्त्वपूर्ण मौलिक प्रयोग नहीं किए हैं। अधिकतर छंदों का अंचल छोड़कर तथा शब्द-लय को न सँभाल सकने के कारण वह अर्थ-लय अथवा भाव-लय की खोज में लयहीन, स्वर-संगतिहीन गद्धबद्ध पंक्तियों को काव्य के लिबास में उपस्थित कर रही है, जो बहुधा भावाभिव्यक्ति को सहायता पहुँचाने में असमर्थ प्रतीत होती है। रूप और भावपक्ष की अपरिपक्वता के कारण अथवा तत्संबंधी दुर्बलता को छुपाने के लिए वह शैलीगत शिल्प को ही अधिक महत्व देती है।"
अस्तु; नई कविता की विशेषता को इंगित करते हुए डॉ. रामदरश मिश्र ने लिखा है- "इस प्रकार नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है कथ्य कहाँ नहीं है? प्रयोगवाद और प्रगतिवाद ने कथ्य को बाँट लिया था, किन्तु नई कविता ने मानव को उसके समग्र परिवेश में सही रूप में अंकित करना चाहा है। नई कविता की दृष्टि मानवतावादी है किन्तु वह मानवतावादी मिथ्या आदशो की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है, बल्कि यथार्थ की तीखी चेतना, अपने परिवेश से जुड़े मनुष्य के बौद्धिक प्रयासों और उसकी संवेदना के उलझे हुए नाना स्वरों तक अनुभूति और चिंतन दोनों दिशाओं में पहुँचाने की चेष्टाओं पर अवलंबित है। इसने छोटे-बड़े का भेद नहीं रखा, छोटी-बड़ी अनुभूतियों, सत्यों, क्षणों, स्थितियों, घटनाओं और दृश्यों का बनावटी अन्तर नहीं स्थापित किया।"
नई कविता की कुछ प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ हैं जो इसको प्रगतिवाद और प्रयोगवाद से भिन्न करती हैं। ये निम्नांकित हैं-
1. क्षणवाद और लघुमानवता पर विश्वास - नई कविता जीवन के प्रत्येक क्षणों की अनुभूति, सुख, दुख, गुण-दोष, पाप-पुण्य आदि के सत्यों में विश्वास रखती है और स्वीकारती है। इसी प्रकार लघु मानवता अर्थात् सामान्य मनुष्य की पीड़ा, भूख-प्यास आदि का संवेदनात्मक चित्र प्रस्तुत करता है। यथा नरेश कुमार की 'उषस्' कविता की कुछ पंक्तियाँ उषासूक्तों की मधुरिमा के साथ मिनसारे में चक्की चलाती रमणी का चित्र उकेरती हैं-
नीलक वंशी में से कुंकुम के स्वर गूंज रहे हैं!
मिनसारे में चक्की के संग
फैल रही गीतों की किरणें
पास हृदय-छाया लेटी है
देख रही मोती के सपने
गान न टूटे जीवन का, यह कंगन बोल रहे।
2. अनुभव की प्रमाणिकता - नई कविता भोगे हुए एवं जीकर प्राप्त अनुभवों को अभिव्यक्त करती है जिससे वह अधिक सत्य एवं प्रमाणिक प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए नरेश मेहता की कविता की निम्नांकित पंक्तियों को देखा जा सकता है-
आओ इस झील को अमर कर दें
छूकर नहीं
एक संग झाँक इस दर्पण में
इस जल को।
3. अनास्था और आस्था दोनों की अभिव्यक्ति - नई कविता में अनास्था, निराशा, मूल्यहीनता और मृत्युबोध के साथ ही आस्था और जिजीविषा का परिचित्रण होता है। साम्प्रदायिक बंधन पर अनास्था व्यक्त करते हुए भारतभूषण कहते हैं-
तोड़ो मौन की चट्टान
फोड़ो अहं का व्यवधान
आकुल प्राण के रसगान
भीतर ही न जाएँ मर !
बोलो जोर से बोलो
व्यथा की ग्रंथियाँ खोलो
सँजो लो मन की फूटें
कंठ से फिर गीत के निर्झर!
4. लोक ग्रहीता - यह नई कविता की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति है। इसमें लोक-जीवन की सत्यता और सौंदर्यबोध के साथ उसके बिंबों, शब्दों, उपनामों, प्रतीकों आदि का चयन कर ग्रहण करने की क्षमता है। निम्नांकित पंक्तियों में मुक्तिबोध ने लोकजीवन की संवेदनाओं से संपृक्त अपनी अनुभूतियों को बड़े ही मार्मिकता के साथ उकेरा है-
गन्दी बस्तियों के पास नाले पर
बरगद है
उसी के श्यात तल में वे
रंभाती हैं गायें।
कि पत्थर ईंट के चूल्हे सुलगते हैं
फुदकते हैं दो चार
बिखरे बाल वाले बालकों के श्याम गन्दे तन
वे लोहे की बनी स्त्री-पुरुष आकृतियाँ
दलिद्दर के भयानक देवता के भव्य चेहरे वे
चमकते धूप में !!
5. व्यंग्य - यह भी नई कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति है। इसका उदाहरण पं. भवानी प्रसाद मिश्र की सुप्रसिद्ध व्यंग्य कविता 'गीत-फरोश' की कुछ पंक्तियों में मिलता है जिनमें संवेदनाहीन बौद्धिकता का चित्रण है-
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हैं।
* * *
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको।
पर पीछे-पीछे अक्ल जगी मुझको
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान ।
जी, आप न हों सुनकर ज्यादा हैरान।
6. कलापरक प्रदर्शन : नई कविता में कलापरक बिबात्मकता, नई प्रतीक योजना, नए विशेषणों एवं उपमानों के प्रयोग दृष्टिगत होते हैं। उदाहरणार्थ डॉ. शम्भुनाथ सिंह की कविता 'दर्पण हम' में प्रयुक्त नए प्रतीकों को देखा जा सकता है-
हम दोनों दर्पण हैं,
दो आदमकद दपर्ण !
मेरे तुम्हारे बीच
शत-सहस्र छवियों में
प्रतिबिम्बित होती हुई
एक अबुझ दीपशिखा जलती है।
इन अनन्त प्रतिविम्बित छवियों के
अनासक्त भोक्ता से
हम दोनों दर्पण हैं !
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि नई कविता का स्वरूप, उसके दृष्टिकोण, प्रतिविम्ब, प्रतीक, उपमानों, उसमें वर्णित संदर्भों आदि के परिज्ञान के लिए वर्तमान परिवेशों को जानना वांछनीय है। आजादी बाद से ही आजतक देश में मानव-शोषण, नारी-विमर्श, दलित-विमर्श, मजदूर, किसान, युवा पीढ़ी, दहेज, नई चेतना आदि की समस्याएँ मुँह बाए खड़ी हैं, इनके साथ ही बेकारी, घूसखोरी, अराजकता, गरीबी, अत्याचार, भ्रष्टाचार, सत्तालोलुपता समस्त विशेषणों, प्रतीकों, शैली एवं शिल्प के साथ वर्तमान परिदृश्यों पर घनीभूत नजर डालकर कुछ महत्त्वपूर्ण नामों-सनातन सूर्योदयी कविता, युयुत्सावादी कविता, अस्वीकृत कविता, अकविता, बीट कविता, ताजी कविता, सहज कविता, नवगीत, अगीत आदि से प्रबलतम अभिव्यंजना के साथ परिवर्तनकारी तेवर में सामाजिक चेतना की प्रकाशमान ज्योति से जन-मानस को जाज्वल्यमान करने में प्रयास-रत हैं।
किन्तु; नई कविताओं के समक्ष आज अनेक चुनौतियाँ भी हैं जिनमें प्रथम है कविता की पहचान का संकट। नई कविता के नाम पर भारी संख्या में लिखी जाने वाली रद्दी, निरर्थक और छंद मुक्त गद्य के अत्यधिक सन्निकट पहुँची कविताएँ हैं जिनमें अर्थ से विलग अनुभूति रहित संवेदना का अभाव तो रहता ही है, ये परिदृश्यों को इतना अधिक संश्लिष्ट बना देते हैं कि वस्तुनिष्ठता के साथ ही पठनीयता भी समाप्त हो जाती है।
दूसरी चुनौती है सम्प्रेषणीयता का अभाव। नई कविता के कवि प्रायः काव्यगुणों से रहित होते हैं, जिससे उनकी कविताओं में प्रस्तुत लुप्त रहता है और अप्रस्तुत के माध्यम से ही भाव-व्यंजना होती है। प्रयोगवादी कविता जैसी अस्पष्ट चित्र, कृत्रिम उपमान और उलझनपूर्ण चिंतन आदि के कारण नई कविता में भी सम्प्रेषणीयता नहीं आती है। इसके कवि स्वयं लिखते हैं और स्वयं ही समझते हैं।
तीसरी चुनौती स्वीकार करती है कि नई कविता के स्वर रसभूमि से दूर नहीं है, तथापि पुरानी परम्परा से सर्वथा विच्छेद की नवीनता के आग्रह में पड़कर नई कविताएँ जन-सामान्य से दूर हो रही हैं और साधारणीकरण प्रक्रिया से शून्य आनन्दरहित हैं-हृदयग्राही नहीं।
अंत में हम कहना चाहते हैं कि इन सभी चुनौतियों के रहते हुए भी नई कविता विकास की डगर पर अग्रसर होती जा रही है निरंतर, क्योंकि जिस विषय, वस्तु या समस्या से आज देश, समाज और व्यक्ति दुखी और प्रपीड़ित है उसका निरूपण और निदान नई कविता से ही सम्भव है, परंपरागत कविता से नहीं। पुरानी परंपरा यदि आज भी जारी रहेगी, तो देश या समाज का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। अतः परंपरा में परिवर्तन अनिवार्य है।
संदर्भ ग्रंथ;
- हिन्दी-साहित्य का इतिहास-आचार्य डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र एवं डॉ. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी।
- आधुनिक हिन्दी कविता में गति-तत्त्व -डॉ. सच्चिदानन्द तिवारी।
- रश्मिबन्ध - सुमित्रानन्दन पन्त
- हिन्दी साहित्य : परम्परा और परख -डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव
- खण्डित सेतु - डॉ. शम्भुनाथ सिंह
- केशव प्रसाद वर्मा
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