साहित्य और जनता का संबंध

Dr. Mulla Adam Ali
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On the relationship between literature and the people, The Relationship between Literature and Society, Sahitya aur Samaj.

The Relationship between Literature and Society

literature and public relations

Sahitya aur Janta : आज जनता के साहित्य का लक्ष्य कला की आराधना नहीं है, बल्कि जनता के संघर्ष में भागीदार बनाना, कठिन परिस्थितियों में उसका मार्ग-प्रदर्शन करना और जनता के सुख-चैन को लूटने वालों का पर्दाफाश करना है। यह सब करते हुए भी जनता के साहित्य को साहित्य होना है और साहित्य के कलात्मक पक्ष पर भी ध्यान देना है, पर उसके लिए कला जीवन की स्तनापन्न न होकर उसका एक अंग है।

Literature and Public

साहित्य और जनता का संबंध

'जनता' शब्द को किसानों-मज़दूरों तक सीमित कर देना भी उपयुक्त नहीं है। जनता का साहित्य आम आदमी का साहित्य है, विशिष्ट व्यक्ति अथवा विशिष्ट वर्ग का साहित्य नहीं है। आम आदमी शोषित है, दलित है, पिछड़ा हुआ है, अभाव ग्रस्त है और कुंठित है। अतः शोषित वर्ग के साहित्य को जनता का साहित्य कहा जा सकता है।

जो समाज के शोषक वर्ग की विशिष्ट तथा विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति, उसकी विशेष अभिरुचियों, विलास के विशिष्ट साधनों और उसकी अर्थ प्रधान रुग्ण संस्कृति का चित्रण करने वाला 'बुर्जा' साहित्य होता है।

जनता का साहित्य के संबंध में डॉ. सुधेश लिखते हैं कि, "जिस में शारीरिक या मानसिक श्रम करने वालों की वास्तविक स्थिति, उनके दैनंदिन संघर्ष, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं और उनकी सफलताओं- असफलताओं का अंकन हो। यही लोग समाज की भौतिक, सांस्कृतिक उन्नति के संघर्ष का भार उठाने वाले, वरन् उसमें सक्रिय सहयोग देने वाले प्राणवान तत्व हैं। अपनी भौतिक स्थिति (आर्थिक, सामाजिक स्थिति) के कारण ये लोग आम हैं। सामान्य हैं। इन्हीं का साहित्य जनता का साहित्य कहलाने का अधिकारी है।"। इस उदाहरण से पता चलता है कि साहित्य में श्रमिक वर्ग के वास्तविकता का चित्रण किया जाता है। क्योंकि देश या राष्ट्र को आगे ले जाना इसके बिना संभव नहीं है।

जनता का साहित्य प्रायः सरल भाषा और स्पष्ट शैली में लिखा जाता है, पर कला की उच्चता से उसका बैर नहीं है। वह जनता को उसकी वर्तमान स्थिति में अपने साथ लेकर उसकी सांस्कृतिक रुचि का परिष्कार करके उसे साहित्य की उत्कृष्टता से भी परिचित कराने के आकांक्षी है। अतः साहित्यिक दृष्टि से सस्ता और सांस्कृतिक दृष्टि से घटिया साहित्य जनता का साहित्य नहीं है।

'लोक साहित्य' जनता के साहित्य से सबसे अधिक निकट है, पर वह प्रायः मौखिक होता है। जनता का साहित्य लिखित और प्रकाशित भी होता है। लोक साहित्य वस्तुतः जनता का ही साहित्य है, या यों कहिए कि वह विशाल 'जन साहित्य' अथवा जनता के साहित्य का अंग है। जनता का साहित्य अपनी मौखिक एवं लिखित परंपरा के पूर्ण होता है। जनता के साहित्य को समृद्ध करने के लिए और उसे जनता तक ले जाने के लिए 'लोक साहित्य' से पर्याप्त प्रेरणा एवं सहायता ली जा सकती है।

'लोक साहित्य' जनता के साहित्य से सबसे अधिक निकट है, पर वह प्रायः मौखिक होता है। जनता का साहित्य लिखित और प्रकाशित भी होता है। लोक साहित्य वस्तुतः जनता का ही साहित्य है, या यों कहिए कि वह विशाल 'जन साहित्य' अथवा जनता के साहित्य का अंग है। जनता का साहित्य अपनी मौखिक एवं लिखित परंपरा से पूर्ण होता है। जनता के साहित्य को समृद्ध करने के लिए और उसे जनता तक ले जाने के लिए 'लोक साहित्य' से पर्याप्त प्रेरणा एवं सहायता ली जा सकती है।

आज जनता के साहित्य का लक्ष्य कला की आराधना नहीं है, बल्कि जनता के संघर्ष में भागीदार बनाना, कठिन परिस्थितियों में उसका मार्ग-प्रदर्शन करना और जनता के सुख-चैन को लूटने वालों का पर्दाफाश करना है। यह सब करते हुए भी जनता के साहित्य को साहित्य होना है और साहित्य के कलात्मक पक्ष पर भी ध्यान देना है, पर उसके लिए कला जीवन की स्तनापन्न न होकर उसका एक अंग है।

मुक्त क्षेत्रों का साहित्य वास्तव में जनता का नया साहित्य है। नए विषय, नए चरित्र, नए भाषा, नए रूप, साहित्य-सृजन की प्रत्येक विधा और प्रत्येक शैली में नए विषयों एवं नए चरित्रों का एक ज्वार सा उठ आया है। वहाँ यह है कि जापान के विरुद्ध प्रतिरोध युद्ध जनता का मुक्ति युद्ध, देहातों में भूमि-सुधार के लिए संघर्ष तथा अन्य विभिन्न सामंतवाद विरोधी संघर्ष जीत में लगान कम कराने से संबंधित भूस्वामियों का खात्मा करने संबंधित, अंधविश्वास विरोधी, निरक्षरता विरोधी, स्वच्छता संबंधी, विवाह में वरण की स्वतंत्रता आदि से संबंधित संघर्ष। औद्योगिक और कृषि उत्पादन और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का कार्य व्यवहार आदि।

राष्ट्रीय संघर्ष, वर्ग संघर्ष और उत्पादन से संबंधित विषय अन्य सभी विषयों की अपेक्षा अधिक उठाए गए है। समाज की ही भाँति साहित्य में भी मजदूर, किसान और सैनिक जनगण सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उस में उन बुद्धिजीवियों का भी वर्णन होता है जिन्होंने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के रूप में सभी प्रकार के मानसिक एवं शारीरिक कार्य किये।

बुद्धिजीवियों को जागृत करने संबंधित जो कृतियाँ 1919 के चार मई आंदोलन से 1942 की योजना की साहित्यिक गोष्ठी तक के दौरान लिखी गई उन में हमारे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के आदर्शों तथा जनगण की गतिविधियों का जुड़ाव नहीं हो पाया था। हमें जनता के नवीन एवं उज्ज्वल पक्षों को अधिक देखना चाहिए। यह हमारे जनगण के नए युग की विशेषता है, यह जनता के नए साहित्य की विशेषता भी है, जो पूर्ववर्ती संपूर्ण साहित्य से भिन्न है।

मुक्त क्षेत्रीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसने राष्ट्रीय साहित्य से और विशेष रूप से जनता के पारंपरिक साहित्य से अपना बड़ा घनिष्ठ संबंध कायम रखा है। पुराने साहित्य अथवा पुराने रूप के संबंध में रमेश उपाध्याय ने लिखा है कि 'हम पुराने रूपों का इस्तेमाल तो करते हैं, लेकिन महज़ पुरानी बोतलों में नई शराब भरने के तौर पर नहीं, बल्कि पुरानी चीज़ों की रचना के रूप में' 2 यह चीज़ राष्ट्रीय साहित्य के विकास की समान्य पद्धति के सर्वथा अनुकूल है। जहाँ तक जनता के साहित्य का संबंध है, उसके लिए सामंती और बुर्जुआ, सभी रूप पुराने हैं। हम उनके इस्तेमाल से इनकार नहीं करते, लेकिन उन में परिवर्तन किया जाना जरूरी है। हम तमाम स्वदेशी और विदेशी परंपराओं की सुंदर तथा उपयोगी विरासत का, और विशेष रूप से सोवियत समाजवादी साहित्य और कला के अनुभवों का, पूर्ण आदर और विनम्र स्वागत करते हैं।

हमारे मजदूर, किसान और सैनिक जनगण तथा राजनीतिक कार्यकर्ताओं में नई चीजों को अपनाने की महान क्षमता है। पेशेवर लेखकों की सृजनात्मक गतिविधियों के अलावा मुक्त क्षेत्रों में मज़दूरों, किसानों और सैनिकों के बीच शौकिया साहित्यिक गतिविधियाँ भी चलती हैं। राजनीतिक एवं आर्थिक सुधार हो जाने के कारण मुक्त क्षेत्रों की जनता सांस्कृतिक सुधार आरंभ करने में समर्थ हो गई है। मज़दूर, किसान, जनगण जिन्होंने साहित्यिक गतिविधियों में भाग लिया है, आश्चर्यजनक सृजनात्मक क्षमता प्रदर्शित करते हैं।

किसान अन्य साहित्य रूपों में भी अपनी महान सृजनात्मक क्षमता प्रदर्शित करते हैं। विशेष रूप से भूमि-सुधार के दौरान किसानों ने मुक्त संबंधी असंख्य कविताओं ओर नाटकों की रचना की, जिनमें बहुत सी रचनाएँ लोक कला के रत्न कही जा सकती हैं। प्रत्येक रचनाकार ग्रामीण जीवन को ऋतुओं के अनुसार बदलती प्रकृति का निरीक्षण करना चाहिए और 'एक रास्ता' पर अतिशयोक्ति पूर्ण ढंग से हरगिज जोर नहीं देना चाहिए सभी क्षेत्रों पर ध्यान रखना चाहिए। मज़दूर, किसान और सैनिक जनगण को शिक्षित करना ओर उनकी राजनीतिक चेतना तथा उत्पादन और युद्ध संबंधी उत्साह को बढ़ाना जनगण के साहित्य का प्रसार करने वाले सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व हैं। जो साहित्य वर्तमान राजनीतिक कार्यों से ओर जनगण की जरूरतों से अपने को काट लेगा, वह न तो लोकप्रिय होगा, न विकसित हो पायेगा।

जनता के साहित्य के संबंध में शिवकुमार मिश्र लिखते हैं कि "पेशेवर लेखकों सहित समस्त रचनाकारों के लिए मज़दूर, किसान तथा सैनिक जनगण की साहित्यिक गतिविधियों पर नज़र रखना और उनका अध्ययन करना और साहित्य के लोकप्रिय बनाने के काम का निर्देशन करने को समस्त साहित्य कर्मियों का एक सामान्य तथा अटल कर्तव्य समझना निहायत जरूरी है। इस निर्देशनात्मक कार्य का सुनियोजित एवं व्यवस्थित होना तथा हमारी संपूर्ण शक्ति के साथ किया जाना अत्यंत आवश्यक है। केवल इसी तरह से हम साहित्य को लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं।"3 साहित्य में सभी वर्गों और सभी तरह के लोगों की गतिविधियों का चित्रण किया जा सकता है क्योंकि मज़दूर, किसान और सैनिक जनगण के जीवन और संघर्ष को पूर्ण रूप में तभी प्रस्तुत किया जा सकता है, जब एक तरफ़ उनके बीच आपस में और दूसरी तरफ़ अन्य सभी वर्गों के बीच मौजूद संबंधों का चित्रण किया जाए। फिर भी, जोर निर्विवाद रूप से मजदूरों, किसानों और सैनिकों पर ही दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे ही मुक्ति युद्ध और राष्ट्रीय पुननिर्माण की आत्मा हैं।

संदर्भ सूची;

  1. साहित्य के विविध आयाम - डॉ. सुधेश, पृ.सं. 27
  2. जनता का नया साहित्य - शिवकुमार मिश्र, पृ.सं. 68
  3. जनता का नया साहित्य - शिवकुमार मिश्र, पृ.सं. 84

- के. सुमन

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