सांभर हिरण : Sambar Deer

Dr. Mulla Adam Ali
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Sambar deer and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Sambar deer in Hindi.

Sambar Deer : Indian Wildlife

sambar hiran types in hindi

Wildlife of India : Sambar has an amazing ability to adapt to the environment. It can easily live in mountain forests as well as plain forests, swampy forests, bamboo forests, plateaus and valleys etc. Perhaps this is the reason why it has been successful in maintaining its existence till now.

Sambar deer (Rusa unicolor)

सांभर हिरण

सांभर दक्षिणी-पूर्वी एशिया में पाया जाने वाला एक अभिनव हिरन है। यह भारत, नेपाल, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका, मलाया, सुमात्रा, बोर्नियो, फिलीपाइन्स, इन्डोनेशिया तथा दक्षिणी चीन के बहुत बड़े भाग में देखने को मिलता है, किन्तु पाकिस्तान में सांभर नहीं मिलता। अंग्रेजी शासनकाल में भारतीय सांभर को एशिया से न्यूजीलैण्ड के उत्तरी भाग में ले जाया गया था, जहां यह अच्छी तरह फल-फूल रहा है।

सांभर भारत में पाये जाने वाले हिरनों में सबसे बड़ा है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 150 सेन्टीमीटर तक होती है। यह पंजाब को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। इसे हिमालय पर्वत के साढ़े तीन हजार मीटर तक की ऊंचाई वाले पर्वतीय वनों में सरलता से देखा जा सकता है। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में यह जड़ाऊ के नाम से जाना जाता है। किसी समय मध्य भारत में बहुत बड़ी संख्या में सांभर पाये जाते थे, किन्तु जंगलों की अन्धाधुंध कटाई और शिकार के कारण इसकी अनेक जातियां पूरी तरह विलुप्त हो चुकी हैं और कुछ विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी हैं।

सांभर की तीन प्रमुख जातियां एवं सोलह उपजातियां हैं। इन सभी की शारीरिक संरचना मृगशृंग (एन्टलर्स) की संरचना एवं आकार में पर्याप्त अन्तर होता है। सांभर की तीन प्रमुख जातियां ये हैं-भारतीय सांभर, सुण्डासांभर और फिलीपाइन्स का सांभर। इनमें भारतीय सांभर सबसे बड़ा और भारी होता है तथा यह भारत एवं एशिया के सर्वाधिक क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसके मृगशृंग भी सबसे सुन्दर होते हैं। भारत में सांभर की छः उपजातियां पायी जाती हैं; इनमें मध्य प्रदेश के नर्मदा और ताप्ती के जंगलों का सांभर सबसे बड़ा और सुन्दर होता है। दक्षिण भारत का सांभर सबसे छोटा होता है, किन्तु सुन्दरता में यह मध्यप्रदेश के सांभर से कम नहीं होता ।

विश्व का सबसे छोटा सांभर फिलीपाइन्स के बसीलन द्वीप के पर्वतीय जंगलों में पाया जाता है। इसकी कंधे तक की ऊंचाई 60 सेन्टीमीटर से लेकर 65 सेन्टीमीटर तक होती है। भारतीय सांभर और श्रीलंका के सांभर की शारीरिक संरचना और मृगशृंग आदि में पर्याप्त समानता पायी जाती है, किन्तु श्रीलंका के सांभर का आकार भारतीय सांभर से छोटा होता है।

सांभर में पर्यावरण से अनुकूलन करने की अद्भुत क्षमता होती है। यह पर्वतीय जंगलों के साथ ही मैदानी वनों, दलदल वाले वनों, बांस के जंगलों तथा पठारों और घाटियों आदि में सरलता से रह सकता है। सम्भवतः यही कारण है कि यह अभी तक अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल रहा है।

सांभर एक विशालकाय हिरन है। इसकी लम्बाई 150 सेन्टीमीटर से लेकर 275 सेन्टीमीटर तक तथा वजन 250 किलोग्राम से लेकर 300 किलोग्राम तक एवं शरीर के ऊपरी भाग का रंग कालापन लिये हुए कत्थई या भूरा-सा होता है, जो वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते पूरा काला हो जाता है। सांभर का सीना, पेट एवं पैरों के भीतर का भाग हल्का पीलापन लिये हुए भूरे रंग का होता है, जो आयु बढ़ने के साथ ही साथ गहरा भूरा होता जाता है। इसके शरीर पर अन्य हिरनों के समान धब्बे, धारियां या चित्तियां आदि नहीं होतीं। नर सांभर की गर्दन पर बलों की एक अयाल होती है तथा गर्दन के चारों तरफ लाल रंग का एक विशिष्ट भाग होता है, जिसकी उपयोगिता अभी तक अज्ञात है। इसकी त्वचा मोटी, भद्दी एवं खुरदुरी होती है तथा इस पर भूरे रंग के कड़े और रूखे बाल होते हैं, जो प्रायः गर्मियों में गिर जाते हैं। सांभर के पैर लम्बे और मजबूत होते हैं एवं इसके खुरों की संरचना इस प्रकार होती है कि इसके चलने की आवाज नहीं होती। इसकी पूंछ मोटी एवं मध्यम आकार की तथा बालयुक्त होती है। सांभर का सर सामान्य होता है तथा सर की तुलना में कान बड़े और चौड़े होते हैं। इसकी दृष्टि साधारण होती है, किन्तु घ्राण-शक्ति एवं श्रवण- शक्ति बहुत तेज होती है। अपनी घ्राण-शक्ति और श्रवण-शक्ति के बल पर यह खतरा निकट होने पर अपने बचाव के लिये उसकी स्थिति मालूम कर लेता है और सतर्क हो जाता है।

मादा सांभर का आकार नर से छोटा होता है। इसके न तो मृगशृंग होते हैं और न ही गर्दन पर बालों की अयाल। इसके शरीर का रंग भी नर से हल्का होता है।

सांभर (Rusa unicolor) के मृगशृंग अन्य हिरनों की तुलना में काफी बड़े और शानदार होते हैं। इन्हीं मृगश्रृंगों के लिये इसका इतना अधिक शिकार किया गया है कि यह विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है। नर सांभर के तीन-तीन भागों वाले दो बड़े मृगशृंग होते हैं जो चार वर्ष की आयु से निकलना आरम्भहोते हैं। इन मृगशृंगों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि ये प्रतिवर्ष गिर जाते हैं, किन्तु कभी-कभी दो वर्षों में गिरते हैं। सांभर के मृगशृंग फैले हुए, मोटे तथा मजबूत होते हैं। इसके दोनों मृगश्रृंगों की शाखाएं तो समान होती हैं, किन्तु इनका विकास एक जैसा नहीं होता। इनमें कभी बाहर वाली शाखा अधिक लम्बी होती है तो कभी भीतर वाली शाखा अधिक लम्बी होती है। एक ही सांभर के अगली बार निकलने वाले मृगश्रृंग उसके पहले वाले मृगश्रृंगों से प्रायः भिन्न आकार के होते हैं। सांभर की सभी जातियों और उपजातियों के मृगशृंगों में संरचना के साथ ही साथ आकार में भी काफी अन्तर होता है। यह अन्तर इनके निकलने और गिरने के समय में भी देखा जा सकता है। उत्तर एवं मध्यभारत के सांभर के मृगशृंग सबसे बड़े होते हैं। इनकी लम्बाई एक मीटर तक होती है। अभी तक के सबसे बड़े मृगश्रृंगों का कीर्तिमान 120 सेन्टीमीटर एवं मृगश्रृंगों के आधार की मोटाई का कीर्तिमान 24 सेन्टीमीटर है। मृगश्रृंगों का सर्वोत्तम कीर्तिमान एक ऐसे सांभर का है, जिसके मृगश्रृंगों की लम्बाई 110 सेन्टीमीटर एवं मोटाई 20 सेन्टीमीटर तथा फैलाव 112 सेन्टीमीटर था। भारत में सर्वाधिक बड़े मृगश्रृंगों वाले सांभर उत्तर भारत के पर्वतीय वनों एवं मध्यभारत के जंगलों में पाये जाते हैं। इनके मृगश्रृंगों की लम्बाई 95 सेन्टीमीटर तक होती है। दक्षिण भारत का सांभर आकार में छोटा होता है। इसके मृगश्रृंग भी छोटे होते हैं एवं इनकी लम्बाई 85 सेन्टीमीटर से अधिक नहीं होती। मलाया का सांभर आकार में दक्षिण भारत के सांभर से छोटा होता है। इसके मृगशृंग भी 65 सेन्टीमीटर से अधिक लम्बे नहीं होते, किन्तु न तो ये अधिक फैले हुए होते हैं और न ही बहुत ऊंचे-नीचे होते हैं। अतः ये बड़े शानदार दिखायी देते हैं।

सांभर के मृगश्रृंगों का सीधा सम्बन्ध इनकी आयु और समागम- काल से होता है। अतः इनके निकलने, पूर्ण वृद्धि प्राप्त करने और गिरने का समय अलग-अलग होता है। मध्य भारत और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में पाये जाने वाले सांभर का समागम-काल नवम्बर-दिसम्बर होता है। अतः इसके मृगशृंग मई-जून में निकलना आरम्भ हो जाते हैं, नवम्बर-दिसम्बर तक परिपक्व हो जाते हैं और मार्च-अप्रैल तक गिर जाते हैं। हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों और उत्तर भारत में पाये जाने वाले सांभर का समागम-काल जनवरी-फरवरी होता है। अतः इनके मृगशृंग जुलाई-अगस्त में निकलना आरम्भ होते हैं, जनवरी-फरवरी तक परिपक्व होकर पूर्ण वृद्धि प्राप्त करते हैं और जुलाई-अगस्त तक गिर जाते हैं।

सांभर के मृगश्रृंग आरम्भ में कोमल और कमजोर होते हैं, किन्तु परिपक्व होने पर मजबूत और कठोर हो जाते हैं। यह प्रायः अपने परिपक्व मृगशृंगों को वृक्षों के तनों से रगड़ कर उन्हें साफ करता रहता है। सांभर के जीवन में इसके मृगश्रृंगों का विशेष महत्त्व है। यह इनके द्वारा शत्रुओं से अपनी रक्षा के साथ ही साथ अपने प्रतिद्वन्द्वियों से अपने क्षेत्र की रक्षा भी करता है।

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Sambar Deer : Indian Wildlife

सांभर निशाचर है अर्थात् सूर्यास्त के बाद भोजन की खोज में निकलता है और रातभर विभिन्न प्रकार की घास-फूस, फल-फूल, पत्तियां, वृक्षों की कोंपलें तथा कोमल शाखाएं आदि खाता है। यह कभी-कभी दिन के समय भी इधर-उधर घूमते हुए देखने को मिल जाता है। सांभर खेतों के निकट रहना बहुत पसन्द करता है और प्रायः रात्रि के समय खेतों में घुस कर फसलों को काफी नुकसान पहुंचाता है। यह जमीन पर उगी हुई घास तथा छोटे-छोटे पौधे आदि बड़े आराम से चरता है और इसके साथ ही अपने दोनों पैरों पर खड़े होकर ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की पत्तियां आदि भी खाता है। यह तीन साढ़े तीन मीटर तक की ऊंचाई वाले वृक्षों की पत्तियां और फलों को सरलता से खा सकता है। सांभर पहाड़ी जंगलों, घाटियों, झीलों आदि के निकट रहना पसन्द करता है और पानी के निकट ही अपना निवास बनाता है। इसे पानी बहुत पसन्द है। यह प्रतिदिन पानी पीता है और आस-पास पानी न मिलने पर पानी की खोज में कभी-कभी अपने निवास से बहुत दूर निकल जाता है। सांभर को धूप और गर्मी सहन नहीं होती। यही कारण है कि यह गर्मियों में दिन के समय घने जंगलों में छिपा रहता है और कभी-कभी तो इसे पानी में लोट लगाते हुए भी देखा जा सकता है। सांभर एक अच्छा तैराक है और गर्मियों में यह लोट लगाने के साथ ही साथ प्रायः तैरता भी है। नदियों में तैरते समय यह बड़ा सुन्दर दिखायी देता है। इस समय इसका पूरा शरीर पानी के भीतर रहता है, केवल सर और मृगशृंग बाहर निकले रहते हैं। कभी-कभी जंगल में भोजन की कमी होने के कारण यह पानी में उतर जाता है और कमल, कुमुदनी तथा इसी प्रकार के फल-फूल एवं जलीय वनस्पतियां बड़े स्वाद से खाता है। यह भोजन के लिये अधिक गहरे पानी में नहीं जाता, बल्कि लगभग दो मीटर गहरे पानी में धीरे-धीरे चलते हुए अपना आहार प्राप्त करता है। सांभर जल और थल दोनों ही स्थानों पर उगने वाले फल-फूल, वनस्पतियां आदि खाता है। यही कारण है कि यह भारत के बहुत बड़े क्षेत्र में फैल गया है और अभी तक सुरक्षित है।

सांभर एकान्त में रहने वाला हिरन है। समागम-काल को छोड़कर यह पूरे वर्ष प्रायः अकेला ही रहता है। कभी-कभी मैदानों में चरते समय दो से चार तक के झुण्ड देखने को मिल जाते हैं, किन्तु एक साथ बारह सांभरों से अधिक के झुण्ड कभी नहीं देखे गये।

सांभर एक निडर हिरन है, किन्तु हमेशा सतर्क रहता है। यह सियारों और जंगली बिल्लियों पर तो ध्यान ही नहीं देता, किन्तु शेर आदि के निकट बड़ा रोमांचकारी होता है। इस लड़ाई में प्रायः इनके मृगशृंग टूट जाते हैं, ये बुरी तरह जख्मी हो जाते हैं और कभी-कभी तो इनकी मृत्यु तक हो जाती है। सांभर अपने सीमाक्षेत्र के निर्धारण के लिये सीमा के पास के पत्थरों, छोटी-छोटी चट्टानों, वृक्षों की टहनियों आदि पर मल-मूत्र विसर्जित करता है एवं बार-बार क्षेत्र की सीमा पर जाकर अपना अधिकार प्रदर्शित करता है। यह चीतल की तुलना में अपने क्षेत्र के प्रति अधिक सचेत होता है और क्षेत्र सीमा पर चीतल से अधिक निशान लगाता है। नर सांभर की क्षेत्र सीमा निर्धारित होने के बाद उससे गुजरने वाली मादाओं पर नर का अधिकार हो जाता है। प्रायः सभी नर समागम- काल में हरम बनाते हैं, जिनमें दो से चार तक मादांए रहती हैं। जिस नर सांभर के क्षेत्र में अधिक हरियाली होती है, अर्थात् हरे-भरे वृक्ष और घास तथा छोटे-छोटे पौधे होते हैं उसमें अधिक मादाएं होती हैं। इस प्रकार के क्षेत्र वाले नर सांभर को अधिक मादाओं के साथ एवं अधिक समय तक समागम का अवसर प्राप्त होता है। इस प्रकार के क्षेत्र वाले नर को 'मास्टर स्टैग' अर्थात् 'स्वामी नर' कहते हैं। नर सांभरों में 'मास्टर स्टैग' बनना कोई आसान कार्य नहीं है, क्योंकि 'मास्टर स्टैग' को सदैव अपने क्षेत्र की सुरक्षा के साथ ही हरम की मादाओं को भी संतुष्ट करना पड़ता है। मादाओं की प्राप्ति के लिये नर सांभरों के मध्य होने वाली लड़ाई बड़ी खतरनाक होती है तथा इसमें भी कभी-कभी नर सांभर की मृत्यु हो जाती है, किन्तु प्रायः हारा हुआ नर विजेता की अधीनता स्वीकार कर लेता है। विख्यात जीव वैज्ञानिक कैलाश सांखला ने अपनी पुस्तक 'टाइगर' में एक स्थान पर लिखा है- 'सन् 1974 जनवरी। सूर्यास्त हो रहा था। ऐसे में पानी के एक स्रोत के निकट सीमा क्षेत्र की सुरक्षा के लिये दो नर सांभर आपस में भिड़ गये। दोनों लगभग पन्द्रह मिनिट तक एक दूसरे से भिड़े रहे। इसके बाद वे कुछ देर के लिये अलग हुए और फिर भिड़ गये। दोनों एक दूसरे पर पूरी शक्ति से प्रहार कर रहे थे। इस मध्य वे बुरी तरह हांफ रहे थे और उनके मुंह से झाग निकल रहा था। मादाएं उनसे कुछ दूरी पर खड़ी घास चर रही थीं। उनका इस ओर कोई ध्यान नहीं था। अन्त में छोटे मृगश्रृंग वाले सांभर ने अपनी हार मान ली और पीछे हट गया। विजेता नर ने उसे भगाया नहीं। उसने आस-पास की दो-चार झाड़ियां उखाड़ीं और अपने मुंह से झाग उगलता हुआ सर उठा कर मादाओं के निकट खड़ा हो गया। इस प्रकार अब उसका अपने क्षेत्र की मादाओं पर अधिकार प्रमाणित हो गया।

सांभर समागम-काल में चीतल और बारहसिंघा के समान आवाजें नहीं निकालता, बल्कि रात्रि के समय केवल एक विशेष प्रकार की लम्बी और धीमी आवाज निकालता है जो रात के सन्नाटे में दूर-दूर तक गूंज जाती है। इनमें कस्तूरी मृग के समान सीमाक्षेत्र के भीतर ही समागम आवश्यक नहीं है, अर्थात् नर और मादा स्वतंत्र क्षेत्रों में भी परस्पर मिल सकते हैं।

समागम काल के बाद हरम टूट जाते हैं और नर अगले समागम-काल तक के लिये मादाओं को छोड़कर अलग हो जाता है।

जीव वैज्ञानिकों का मत है कि समागम-काल में नर सांभर एक विशेष प्रकार की उत्तेजना अनुभव करते हैं, इसलिये आपस में लड़ते हैं। इस काल में इनके मृगशृंग पूर्ण विकसित होते हैं। मृगशृंगों के गिर जाने के बाद इनकी उत्तेजना शांत हो जाती है। यही कारण है कि जो सांभर मृगशृंग होने पर घातक लड़ाई करते हैं, मृगशृंग गिर जाने के बाद आपस में अच्छे साथियों की तरह चरते हुए देखे गये हैं। मृगशृंग निकलने पर ये पुनः एकाकी जीवन प्रारम्भ कर देते हैं।

मादा सांभर का गर्भकाल 5 से 6 माह तक होता है, अर्थात् समागम की उपरोक्त अवधि के बाद मादा एक बच्चे को जन्म देती है। इनमें जुड़वां बच्चे होना अपवाद है। मैदानी भागों में मादा अप्रैल-मई में वच्चे को जन्म देती है एवं हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में जुलाई-अगस्त के महीनों में। मादा सांभर हमेशा घनी झाड़ियों के मध्य बच्चे को जन्म देती है तथा हिंसक पशुओं से बचाने के लिये उसे छिपा कर रखती है। जन्म के समय बच्चे के शरीर पर धब्बे और चित्तियां होती हैं जो धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं। इसका पालन-पोषण मादा ही करती है तथा वयस्क होने तक उसे अपने साथ रखती है। सांभर का बच्चा चार वर्ष में वयस्क एवं प्रजनन के योग्य हो जाता है। इसके सर पर निकलने वाले मृगशृंग इसके वयस्क होने का प्रमाण होते हैं। सांभर का जीवन- काल 12 वर्ष से 20 वर्ष तक होता है। इसे सरलता से पालतू बनाया जा सकता है और चिडियाघरों में रखा जा सकता है।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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