Hindi Vyangya aur Harishankar Parsai Ki Kahaniyan, Satire in Harishankar Parsai's stories, Satire in Hindi Stories.
Harishankar Parsai
हिंदी कहानियों में व्यंग्य : आज आपके लिए प्रस्तुत है हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कहानियों में व्यंग्य, समाज की रग-रग से वाक़िफ़ हास्यकार, मूर्ध्यन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी अपनी कहानियों में व्यक्ति चरित्र के माध्यम से संपर्ण व्यवस्था के बह रूपियेपन को उजागर कर देते हैं। वे सामाजिक अनुभवों के दर्शक मात्र नहीं हैं, उनके भोक्ता भी है। पढ़िए पूरा लेख और शेयर कीजिए।
Hindi Vyangya aur Harishankar Parsai
हरिशंकर परसाई की कहानियों में व्यंग्य
व्यंग्य परंपरा को सुदृढ बनानेवाले हरिशंकर परसाई ने साहित्य संसार में अपनी अलग जगह बना ली है।
"भीतर का घाव" एक मार्मिक कहानी है जो आज के घृणित यथार्थ को प्रस्तुत करती है। आर्थिक परेशानी इसका मूल कारण है। यह निम्न मध्य वर्ग की विडंबनाओं और अभावों को उजागर करती है और इन अभावों से उत्पन्न विकृति और विसंगति पर प्रहार करती है। इसमें दहेज समस्या को उठाया गया है जो आज भी हमारे समाज की ज्वलन्त समस्या बनी हुई है। अतः प्रस्तुत कहानी आज भी प्रासंगिक है। इस कहानी दहेज की उस विकट समस्या को उठाती है जिसमें आज भी हमारे समाज की कितनी ही बहुओं का जीवन नष्ट किया जा रहा है। यह एक ऐसा अभिशाप है जहाँ मानवीयता तिरोहित हो जाती है, ससुराल वाले मरणासन्न बहु का इलाज न करके उसके मरने की राह देखते हैं ताकि लड़के का दूसरा शादी करके और दहेज प्राप्त किया जा सके। परसाई अपने पाठक को भी छल, कपट और पाखंड से सावधान करते चलते हैं।
"भोलाराम का जीवन" कहानी में व्यंग्य के माध्यम से शासकीय व्यवस्था, घूसखोरी, स्वार्थ और जड़ता को उजागर किया गया है। यह कहानी सन् 1956 में लिखी गयी थी, किन्तु इसमें उठाई गई समस्या के आधार पर यह आजभी प्रासंगिक है। नौकरशाही की रिश्वतखोरी, शोषण और अकर्मण्यता आज देश की सबसे बड़ी समस्या है जो देश को आगे ले जाने के बजाय पीछे गर्त में ढकेलती जा रही है। इसमें परसाई ने भारत की पूरी समाज-व्यवस्था और प्रशासन-तंत्र का अंकन बड़ी कुशलता से किया है। सरकारी दफ्तरों की कार्य प्रणाली ने धर्मराज के सिंहासन को भी हिलाकर रख दिया है। भोलाराम के माध्यम से समूचे मौजूदा तंत्र की पड़ताल की गयी है। इसमें पौराणिक पात्रों व धार्मिक कथाओं का-सा शिल्प बुना गया है। लेकिन बात इसी जगत की है। अपने समय और परिवेश को गहरे में जाकर देखना और गहरी संवेदना के साथ उसका सूक्ष्म अन्वेषण परसाई को प्रेमचन्द की परंपरा से जोड़ता है।
"सदाचार का तावीज" में एक काल्पनिक राज्य के माध्यम से आज के समय-संदर्भ को चित्रित किया गया है। एक राज्य में भ्रष्टाचार बहुत फैल गया था। राजा चिंतित होता है और अपने सलाहकारों व मंत्रियों को बुलाता है। मंत्रीगण विशेषत जो को बुलाने की सलाह देते हैं। विशेषज्ञों के यह सिद्द कर देने पर कि सारे राज्य और राजमहल में भी भ्रष्टाचार अपने पंजे जमा चुका है। राजा की नींद हराम हो जाती है। उसके सेवक एक दिन न एक साधु को पेश करते हैं, जो सदाचार का तावीज बाँटता है। तावीज के जोर पर कर्मचारी दो तारीख को रिश्वत नहीं लेते किन्तु इकतीस तारीख को ले लेते हैं। जब तक उन्हें उनकी दैनिक जरूरतें पूरी करने योग्य धन नहीं मिलता, वे इसीतरह से रिश्वत लेते रहेंगे। पहले उन्हें आर्थिक सुरक्षा दी जाये, फिर भाषण, उपदेश और निगरानी आयेगा।
"अकाल उत्सव" में अकाल, जमाखोरी, मुनाफखोरी आदि को लेकर व्यंग्य किया गया है- "अकाल-उत्सव में अकाल का एक सर्वथा नयारूप व्यंग्य-लेखक की दृष्टि में-हर आदमी का अपना अकाल होता है। इनका अकाल दूसरा है। इन्हें सिर्फ ग्यारह क्विटल विधायक मिल जायें तो अकाल-समस्या ल होजाये सत्ता की।" (ऑखनदेखी, सं. कमला प्रसाद, पृःसं 132) इसमें स्वप्न के रूप में लेखक ने फैंटसी प्रस्तुत की है।
"जैसे उनके दिन फिरे" कहानी में राजनेताओं की स्वार्थ-लोलुपता, चरित्र हीनता और अनैतिकता पर तीखा व्यंग्य है। ये दुस्साहसी, चरित्र भ्रष्ट शासक बेधड़क जनता का शोषण करते हैं। वास्तव में दिन फिरने की यह लीला जो प्रस्तुत की गयी, वह हमारा यथार्थ है। यह कहानी संकेतात्मक और स्वतंत्रता के बाद सत्ताप्राप्त करने की होड़ में विजयी तथाकथित शासक वर्ग पर चोट करती है। इनसे डाकू और जमाखोर व्यापारी भी पीछे रह गये। जो सबसे लुटेरे हैं, वे ही सबसे अधिक प्रतिष्ठित और योग्य हैं। यही उत्तराधिकार की क्षमता का नया फार्मूला है। इसमें उनकी गहरी सामाजिक संवेदना, अन्तर्निहित है। वे सर्वहारा वर्ग के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हैं और बड़ी गंभीरता व जिम्मेदारी के साथ शोषकों के प्रति सर्वहारा वर्ग को सचेत करते चलते हैं।
"राग-विराग" में धर्म के नाम पर साधु का वेशधरे पाखंडियों की धूर्तता को प्रकट किया गया है। इसमें बस-यात्रियों की व्यवहारगत विचित्रताओं का वर्णन है। स्त्री के माध्यम से परसाई यह बताना चाहते हैं कि लोग इन साधुओं की वेश-भूषा देखकर उन पर विश्वास कर लेते हैं और छले जाते हैं।
परसाई पौराणिक प्रसंगों को समकालीन यथार्थ पर व्यंग्य करने के लिए बड़ी सफलता से प्रयोग में लाते हैं। 'सुदामा के चावल' ऐसी रचना है जिसमें उन्होंने पुराण रूप का बिल्कुल नये संदर्भों में प्रयोग किया है। सुदामा अपने मित्र, शासक कृष्ण से मिलने जाते हैं तो पहरेदार उसकी दुःस्थिति देखकर उसका मजाक उडाते हैं, बाद में भेंट में देने के लिए लाये गये उसके चावल धूल के रूप में लेते हैं। तब कहीं कृष्ण से मिलने देते हैं। कृष्ण सुदामा ये इसबात को गुप्त रखने की सलाह देते हैं। इसमें सुदामा आम जनता का प्रतिनिधि हैं और कृष्ण व उसके कर्मचारी वर्तमान लोकतंत्रीय व्यवस्था के प्रतीक हैं। शासक जो राजधानी में रहता है, साधारण आदमी उसे देख भी नहीं सकता। उसके पास तो शासक के आदमी कर (वोट) लेने आते हैं, इसी से पता चलता है कि सरकार है। उसके पास उससे मिलने के लिए कुछ (भेंट) लेकर जाना होता है जिसे उसके कर्मचारी बीच में ही चटकर जाते हैं और ऊपर से धौंस बताते हैं। यहाँ परसाई ने प्राचीन मिथकों के माध्यम से वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था को अपनी पूरी असलियत के साथ वर्णन किया है।
"जमाखोर की क्रान्ति" में परसाई ऐसे लोगों से आग्रह करते हैं जो उस पर से नौजवानों का क्रान्ति में साथ देते हैं, अन्दर-ही-अन्दर अपने स्वार्थ साधते रहते हैं और उन्हें दिग्भ्रमित करते हैं।
"लंका-विजय के वाद" में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति की विद्रूपताओं को प्रकट करती हैं। इसमें आज के समाज को प्राचीन मिथकों के साथ वर्णन किया गया है। वर्तमान प्रजातंत्र व्यवस्था तथा व्यवस्थापकों का चरित्र एवं उनके कृत्यों से वर्तमान व्यवस्था में सड़ाँध और नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार व्याप्त हो जाता है। आजादी के बाद के हिन्दुस्तान की संपूर्ण सच्ची तस्वीर परसाई की कहानियों में परिलक्षित है।
हरिशंकर परसाई पूरी तरह से वर्तमान में जी रहे कथाकार हैं। वे यातनाओं से संघर्ष करते आम आदमी के सत्य हैं। राजनैतिक-सामाजिक और वैयक्तिक अन्तर-संबंधों का जो वर्णन उसने अपनी कहानियों में किया है, उसके पीछे विघटित होते हुए मूल्यों व तिरोहित आदर्शों के प्रति चिन्ता है। तभी तो वे 'राग-विराग', 'सदाचार का तावीज' और 'भोला राम का जीव' जैसी कहानियाँ लिखते हैं और एक बेहतर वातावरण बनाने की प्रेरणा देते हैं।
हरिशंकर परसाई अपनी कहानियों में व्यक्ति चरित्र के माध्यम से संपर्ण व्यवस्था के बह रूपियेपन को उजागर कर देते हैं। वे सामाजिक अनुभवों के दर्शक मात्र नहीं हैं, उनके भोक्ता भी है।
- डॉ. काकानि श्रीकृष्ण
ये भी पढ़ें; व्यंग्य के पुरोधा परसाई जी | Harishankar Parsai