Basant Panchami : प्रकृति का मदनोत्सव है वसंत ऋतु

Dr. Mulla Adam Ali
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वसंतोत्सव : मदनोत्सव या वसंतोत्सव का आरंभ माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी (वसंत पंचमी) से शुरू होता है, इस दिन कामदेव और रति की पूजा की जाती है। प्रेम का शालीन पर्व मदनोत्सव प्राचीनकाल में होली कहलाता था होलिकोत्सव, अंग्रेजी सभ्यता में 14 फरवरी को वैलंटाइंस डे मनाते है, प्राचीन काल में वैलंटाइंस डे यानी हमारा मदनोत्सव। बसंत पंचमी को शास्त्रों में ऋषि पंचमी (Rishi Panchami)  भी कहा जाता है, तो पढ़िए वसंत पंचमी पर विशेष वसंतोत्सव के बारे में।

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प्रकृति का मदनोत्सव है वसंत ऋतु

भारतीय संस्कृति में व्रत, पर्व एवं उत्सवों की विशेष प्रतिष्ठा है। भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ भूमण्डल की सभी ऋतुएँ यहाँ होती हैं। भारत में फागुन और चैत के महीने बसन्त का समय माने जाते हैं। उधर शिशिर की निर्दयता समाप्त होती है तो वसन्त का शुभागमन होता है।

प्राचीन काल में इस ऋतु में हमारे देश में 'मदनोत्सव' नामक एक विशेष त्यौहार मनाया जाता था। अब भी वसन्त पञ्चमी, होली और रामनवमी के त्यौहार इसी ऋतु में मनाए जाते हैं। वसन्त पञ्चमी के दिन पुरुष वासन्ती पगड़ियां पहनते हैं और स्त्रियां वासन्ती साड़ियां तथा दुप्ट्टे धारण करती हैं। इस दिन हलुआ भी वासन्ती रंग का ही बनाकर खाया जाता है। बसंत पंचमी के दिन पतंगबाजी भी खूब होती है।

वसन्त पंचमी वास्तव में वसन्त ऋतु के आगमन पर उद्घाटन समारोह का दिवस है। काम-शास्त्र में 'सुवसंतक' नाम उत्सव की चर्चा आती है। 'सरस्वती कण्ठाभरण' में लिखा है कि सुवसंतक वसंतावतार के दिन को कहते हैं। वास्तव में वसन्त पंचमी ही वसंतावतार की तिथि है।

'मात्स्यसूक्त' और 'हरि भक्ति विलास' आदि ग्रंथों में इसी दिन को वसन्त का प्रादुर्भाव दिवस माना गया है। इसी दिन ही मदन देवता की प्रथम पूजा का विधान है। कामदेव के पञ्चश्वर (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) प्रकृति संसार में अभिसार को आमंत्रित करते हैं।

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ज्यों ही वसन्त ऋतु का शुभागमन होता है तो चारों ओर जीवन और वातावरण बदल जाता है, जैसे किसी ने जादू फूंक दिया हो। पतझड़ ने जिन पौधों को नग्न बना दिया था, सहृदय वसन्त उन्हें हरे-भरे कपड़ों और फूलों से श्रृंगारित कर देता है। सूनी डालियों की झोली कोमल पत्तियों और फूलों से भर जाती है, जैसे वसन्त ने उन्हें उपहार दिया हो। खेतों में जाकर देखें तो दूर-दूर तक झूमती हुई बासन्ती चुनरी ओढ़े सरसों मन को लुभाती है, बगीचों में फूलों का रंगीन सौन्दर्य अपनी ओर आकृष्ट करता है।

वसन्त कामदेव का साथ और ऋतुओं का राजा है। इस ऋतु में सुगन्ध मिश्रित पवन चलने लगती है। शाखाओं-प्रशाखाओं में नवीन पत्रांकुर शोभा देने लगते हैं। चारों ओर फूल खिलते हैं, आम के वृक्षों पर मञ्जरियां आच्छादित होती हैं तो कोकिल मधुर कलरव करता है। सांझ सुहावनी और दिन रमणीय होने लगते हैं। स्त्रियां अनुरागिनी होने लगती है। इस ऋतु में सभी पदार्थों में मनोहरता आ जाती है।

आयुर्वेद के अनुसार इस ऋतु में भ्रमण करना अत्यन्त लाभप्रद होता है। नई कोंपलों की भाँन्ति मनुष्य के शरीरों में भी नए रक्त का संचार होता है और भ्रमण करने से मन सारा दिन आनन्दित तथा तन स्फूर्ति से भरपूर रहता है। इस ऋतु में विरहाग्नि में आहुति का काम करने वाली आम की मञ्जरियां खिलती हैं, नये पलाश के फूलों की सुगन्धि को चुराने वाली और राह की थकान मिटाने वाली श्रीखण्ड शैल से आने वाली मलय वायु चलती है। कवि इसी अहसास को शब्द देता है यही कवि की काव्य दृष्टि है। वास्तव में वसन्त एक राग है। मनुष्य की रागात्मक वृति को उत्तेजित करने के कारण ही वसन्त कामदेव का सखा कहलाता है।

सभी ऋतुओं की तुलना में श्रेष्ठ होने के कारण इसे ऋतुराज की पदवी दी जाती है। इसकी महत्ता इस बात से भी सिद्ध होती है कि गीता में श्री कृष्ण ने वसन्त को अपने रूप में ही माना है। 'ऋतुनां कुसुमाकरः' अर्थात ऋतुओं में फूलों का भण्डार वसन्त ऋतु हूँ। शब्द कोश में भी वसन्त का अर्थ 'फूलों का गुच्छा' दर्शाया गया है। वसंत पंचमी के दिन ही श्रीराधा-श्यामसुन्दर देव प्राकट्योत्सव-विवाहोत्सव भी माना जाता है। इसी दिन ही विद्या की देवी सरस्वती की पूजा भी की जाती है। भगवती सरस्वती सत्वगुण सम्पन्न है। वाक, वाणी, गौ, सोमलता, वाग्देवी और वाग्देवता आदि नाम हैं, परन्तु इनके अनेक नाम हैं। ऋग्वेद के 10वें अध्याय के 125 वें सूक्त के आठवें मन्त्र के अनुसार वाग्देवी सौम्य गुणों की दात्री तथा वसु रुद्रादि देवों की रक्षिता है। ये राष्ट्रीय भावना प्रदान करती है। भगवती सरस्वती की उपासना करके कवि कुलगुरु कालिदास ने ख्याति पाई। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि देवी गंगा और सरस्वती एक समान ही पवित्रताकारिणी है। एक पापहारिणी तो दूसरी अविवेकहारिणी है।

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पुनि बंदऊं सारद सुसरिता, जुगल पुनीत मनोहर चरिता।

मज्जन पान पाप हर एका, कहत सुनत एक हर अविवेका ।।

इतिहास प्रसंग के अनुसार इसी दिन ही वीर बालक हकीकतराय ने अपने धर्म पर दृढ़ रहते हुए अपना बलिदान दिया था। वीर हकीकत ने अपने हिन्दू धर्म का परित्याग न करके अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।

महाकवि कालिदास (विरचित) 'ऋतु-संहार' में कहते हैं-इस ऋतु में बौरे आम के वृक्षों की सुगन्ध से सुगन्धित वायु ने धीरज धरने वाली कामिनियों के हृदयों में भी खलबली मचा दी है। मदोन्मत्त कोकिलों की कुहुक और भौरों के गुञ्जार से चारों दिशाएँ भर गयी हैं। आम के रस से मतवाला हुआ कोकिल, सादर अपनी प्यारी का मुख चूम रहा है। गूंजता हुआ भौंरा भी कमल पर बैठ कर अपनी प्यारी की खुशामद (मनुहार) कर रहा है।

भर्तृहरि द्वारा रचित 'श्रृंगार शतक' में कहा गया है कि वसन्त में नामर्द भी मर्द हो जाता है। स्त्रियों को इतना मद छा जाता है कि वे सीना उभार कर और अकड़ कर चलती हैं। रसीले और छैल छबीले पतियों के पास रहने पर भी वे नहीं दबती बल्कि उत्कण्ठित ही रहा करती हैं। वसन्त में सभी की उत्कण्ठा और काम वासना बढ़ जाती है। वसन्त में प्रायः सभी प्राणियों को कामदेव सताता है। सच पूछिए तो वसन्त यौवन, प्रेम, उमंग और उत्साह का राग है। परन्तु यह पश्चिमी सभ्यता और वैश्वीकरण का 'भौण्डा सेक्स' नहीं है। वसन्त एक भाव दशा है। यह एक पवित्र पर्व है। सुगंध है, जीवनधारा है, जीवन दर्शन है, एक महान लौकिक पर्व है। वसन्त संवेदनशील समाज के लिए संजीवनी है।

कालिदास कृत 'श्रृंगार-तिलक' में कहा गया है कि कोयल कुहुकती हो, लताएँ फूल रही हों, चाँदनी छिटक रही हो, श्रेष्ठ कवि अपनी रसीली कविताएँ सुनाते हों और भोग विलास से थककर प्रियतम अपनी प्राण प्यारी के पास आराम कर रहे हों, चैत के महीने की रातों में जिन्हें यह सब उपलब्ध हों, वे निश्चय ही बड़े भाग्यवान हैं। भारतीय साहित्य में वसन्त को श्रृंगार रस व भक्ति रस में अनेक कवियों ने अपने-अपने तरीके से अपनी रचनाओं में सृजित किया है। फिर चाहे वे संस्कृति के महाकवि पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला हों, प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत हों या फिर केदारनाथ सिंह व अन्य महाकविगण। वस्तुतः साहित्य ने ही वसन्त के मधुरिम सौन्दर्य का बोध कराया है। हजारीप्रसाद द्विवेदी के 'कबीर' नामक ग्रन्थ के 15वें पद में वसन्त अति आकर्षक बन पड़ा है।

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जहां खेलत बसंत राज।

जहां अनहद बाजा बजे बाज।

चहुदिसि जोति की बहे धार।

विरलाजन कोई उतरे पार।।

वसन्त ऋतु का मानवीकरण सुमित्रानंदन पंत ने इस तरह किया है-

'चंचल पग दीप शिखा के घर, गृह मग वन में आया वसन्त सुलगा फाल्गुन का सूनापन, सौंदर्य दिशाओं में अनंत।'

जब वातावरण (मौसम) अपनी चरम सीमा में मादक और उत्कंठित होगा तो हरियाणा की नवयौवना भले शान्त कैसे रह सकती है। वह अपने विरह से भरे उद्‌गार इस लोकगीत के माध्यम से इस प्रकार उद्घाटित करती है। उसका पति जीविका उपार्जन हेतु प्रदेश प्रवास पर है, तो इधर इस नवयौवना की जवानी बिगड़ रही है। वह कचहरी में दावा कर देने की धमकी देते हुए कहती है-

मेरी नई-नई जवानी बिगड़ी रसिया,

मैं तो दावा करूँगी अदालत में।

बाजरे की रोटियां चने का साग,

तुझे जेलों का पानी पिला दूँ रसिया

मैं तो दावा करूँगी अदालत में.....

तेरा दिल्ली का मुकदमा आगरे पहुँचा दूँ

तुझे सिमले की जेल करा दूँ रसिया

मैं तो दावा करूँगी अदालत में.....

ससुर को पेस करूँ, जेठे को पेस करूँ,

छोटे देवर की दे दू गवाही रसिया

मैं तो दावा करूँगी अदालत में.....

मेरी नई-नई जवानी बिगड़ी रसिया

मैं तो दावा करूँगी अदालत में.....

नूतनता की स्थापना करने वाली और सृजन की दूती इस वसन्त ऋतु के गीत सभी भाषाओं के कवियों ने गाए हैं। यह ऋतु निराशा में आशा का संचार करने वाली तथा जीवन की प्रेरणा देने वाली है।

फूले चहूँ दिशआम, भई सुगन्धित ठौर सब।

मधु-मधु पी अलिग्राम, मत्तभये झूमत फिरें।।

- रामशरण युयुत्सु

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