The chital or cheetal hiran and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Chital Deer.
Spotted Deer : Indian Wildlife
Wildlife of India : Herds of Chital Deer have been seen in considerable numbers in Sundarbans too. The Chital Deer living in Sundarbans drinks the salty water of the sea and likes to stay near water.
Chital Hiran
चीतल हिरन
चीतल एक अत्यन्त प्राचीन हिरन है और भारतीय वनश्री का प्रतीक है। इसकी गणना विश्व के सर्वाधिक सुन्दर एवं मनोहारी हिरनों में की जाती है। सामान्यता हिरनों की सुन्दरता का मापदण्ड उनके मृगशृंग (एन्टलर्स) होते हैं, किन्तु चीतल एकमात्र ऐसा हिरन है, जिसे उसके आकर्षक शरीर एवं चित्तीदार त्वचा के कारण सुन्दर समझा जाता है।
चीतल केवल भारतीय उपमहाद्वीप में चार हजार फुट तक की ऊंचाई वाले भागों में पाया जाने वाला हिरन है। यह भारत के साथ ही श्रीलंका में भी देखने को मिल जाता है। भारत में यह असम, पंजाब और राजस्थान को छोड़कर देश के सभी भागों में पाया जाता है। यह भारत के सम्पूर्ण पूर्वी भाग में एवं अरावली से भेलघाट तक, मध्य भारत के अधिकांश भागों एवं दक्षिण भारत में केरल के वर्षा वनों में बहुत बड़ी संख्या में पाया जाता है। चीतल एक वन्य प्राणी है और घने जंगलों में रहना पसन्द करता है, किन्तु यह उन जंगलों को अधिक पसन्द करता है, जिनके निकट घास के मैदान या चारागाह हों।
चीतल के झुण्ड सुन्दर वन में भी पर्याप्त संख्या में देखे गये हैं। सुन्दर वन में रहने वाला चीतल सागर का खारा पानी पीता है और पानी के निकट ही रहना पसन्द करता है।
चीतल की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इस पर बदलते हुए मौसम एवं स्थान का बहुत कम प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि इस शताब्दी के आरम्भ में चीतल को भारत से एशिया, योरोप और उत्तरी अमरीका के अनेक देशों में ले जाया गया। यहां यह पूरी तरह फल-फूल रहा है। इसकी संख्या में सर्वाधिक वृद्धि हवाई द्वीप में हुई है। यहां के जंगलों में चीतल इतने बढ़ गये हैं कि अब इन्हें अन्य देशों को भेजा जा रहा है।
चीतल एक सामान्य आकार का हिरन है। विभिन्न स्थानों पर पाये जाने वाले चीतलों के आकार और रंग-रूप में थोड़ी-बहुत भिन्नता होती है। सामान्यतया इसकी लम्बाई 120 सेन्टीमीटर से 150 सेन्टीमीटर तक एवं ऊंचाई 85 से 95 सेन्टीमीटर तक होती है। चीतल का शरीर भारी होता है। इसका वजन 80 किलोग्राम से लेकर 90 किलोग्राम तक होता है। चीतल का रंग बादामी पीला होता है और इस पर सफेद रंग की असमान आकार की चित्तियां होती हैं। इसके शरीर के दोनों ओर पायी जाने वाली चित्तियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये चित्तियां अनेक लम्बी-लम्बी कतारों में होती हैं। इसका सिर पीलापन लिये हुए भूरा होता है और इस पर भी चित्तियां होती हैं। चीतल की गर्दन का ऊपरी भाग एवं पेट तथा टांगों का भीतरी भाग सफेद होता है।
दक्षिण भारत में पाये जाने वाले चीतल के शरीर का रंग चटकीला पीलापन लिये हुए भूरा होता है एवं इस पर पीले रंग की चित्तियां होती हैं। इसकी रीढ़ पर काले रंग की धारी होती है व पेट और गले का रंग सफेद होता है।
चीतल दिन के समय विचरण करने वाला हिरन है। अतः प्रायः जंगलों में देखने को मिल जाता है, किन्तु नर और मादा की शारीरिक संरचना समान होने के कारण झुण्ड अथवा एकान्त में खड़े चीतल को देख कर यह पहचानना कठिन होता है कि यह नर चीतल है या मादा चीतल?
सामान्य हिरनों के समान नर चीतल के सिर पर दो चिकने सफेद और शानदार मृगशृंग होते हैं, जिनमें तीन-तीन शाखाएं होती हैं। ये प्रतिवर्ष पूर्ण वृद्धि प्राप्त करने के बाद झड़ जाते हैं और इनके स्थान पर नये मृगश्रृंग निकलते हैं। मृगशृंगों के गिरते समय नर चीतल कुछ दिनों के लिये अपने झुण्ड से अलग हो जाता है और एकान्त में रहता है। मादा चीतल के मृगशृंग नहीं होते।
चीतल के मृगशृंगों की लम्बाई इसके सर से तीन गुनी अधिक होती है। सामान्यतया उत्तर भारत में पाये जाने वाले चीतल के मृगशृंगो की लम्बाई 75 सेन्टीमीटर से लेकर 90 सेन्टीमीटर तक हो सकती है। दक्षिण भारत के चीतल का आकार उत्तर भारत के चीतल से छोटा होता है तथा इसके मृगशृंग भी उत्तर भारत के चीतल से छोटे होते हैं। इनकी लम्बाई 70 सेन्टीमीटर से लेकर 85 सेन्टीमीटर के मध्य होती है। चीतल के अभी तक के सबसे अधिक लम्बे मृगशृंगों का कीर्तिमान 101 सेन्टीमीटर है। यह कीर्तिमान उत्तर भारत के चीतल का है। दक्षिण भारत के चीतल के मृगशृंग उत्तर भारत के चीतल से छोटे अवश्य होते हैं, किन्तु ये देखने में अधिक सुन्दर और आकर्षक होते हैं।
सभी स्थानों पर चीतल के मृगशृंग निकलने और गिरने का अलग-अलग समय होता है। कुछ स्थानों पर चीतल के मृगशृंग वर्ष-भर निकलते रहते हैं और गिरते रहते हैं। मध्यभारत और दक्षिण भारत में पाये जाने वाले चीतल के मृगश्रृंग अगस्त-सितम्बर में गिरते हैं तथा अप्रैल-मई तक पुनः निकल आते हैं। उत्तर भारत में पाये जाने वाले चीतल की स्थिति इसके विपरीत होती है।
चीतल पानी के निकट रहने वाला शाकाहारी वन्य प्राणी है। यह शुष्क स्थानों पर नहीं रह सकता। चारे और पानी की अधिकता वाले स्थानों पर इसकी संख्या तेजी से बढ़ जाती है। चीतल हमेशा झुण्ड बना कर रहता है। प्रत्येक झुण्ड में नर-मादा और सभी आयु के बच्चे होते हैं। प्रायः एक झुण्ड में इनकी संख्या 30 से 40 के मध्य होती है। यह प्रतिदिन सूर्योदय के बाद अपने झुण्ड के साथ जंगल से निकल कर मैदानों में आता है और लगभग चार-पांच घन्टे तक छोटी-छोटी मुलायम घास तथा वनस्पति आदि चरता है। इसका भोजन करने का ढंग सांभर और नीलगाय की तरह ही होता है। चीतल सांभर की तरह लम्बे समय तक केवल घास ही नहीं खाता है, बल्कि अपने पिछले पैरों पर खड़ा होकर वृक्षों की पत्तियां भी बड़े शौक से खाता है। चीतल छः फुट तक की ऊंचाई पर लगी पत्तियां सरलता से खा सकता है। इसके साथ ही यह वृक्षों से गिरी हुई पत्तियां भी खा लेता है। इसके बाद यह निकट के जलाशयों से पानी पीता है और फिर धूप से बचने के लिये किसी ऊंचे स्थान पर छायादार वृक्ष के नीचे आराम करता है। चीतल हमेशा एक दूसरे की ओर पीठ करके आराम करते हैं, जिससे उनकी दृष्टि चारों ओर जा सके और वे हिंसक पशुओं से बच सकें। संभवतः शत्रु से बचने के लिये ही ये ऊंचाई वाले भागों पर आराम करते हैं। चीतल सूर्यास्त के बाद पुनः दो-तीन घंटे घास-फूस एवं वनस्पति आदि खाता है और फिर वापस जंगल में अपने झुण्ड के साथ लौट जाता है। चारागाहों में चरते समय इनके अनेक झुण्ड आपस में एक दूसरे से मिल जाते हैं तथा इस समय इनकी संख्या सात-आठ सौ तक हो सकती है। झुण्ड में चीतल की संख्या चारे और पानी पर निर्भर करती है। यदि चारे और पानी की अधिकता होती है तो झुण्ड बहुत बड़े हो जाते हैं, किन्तु चारे और पानी की कमी होने पर झुण्ड छोटे होने लगते हैं।
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Wildlife of India : Spotted Deer |
चीतल जंगल के दूसरे प्राणियों से सरलता से हिल-मिल जाता है, विशेष रूप से बन्दर से। यह बन्दर को शीघ्र ही अपना मित्र बना लेता है।
चीतल अन्य हिरनों की तुलना में रात्रि के समय बहुत कम विचरण करता है, क्योंकि यह अपना पूरा भोजन दिन के समय ही प्राप्त कर लेता है। चीतल बहुत अच्छा तैराक होता है। बड़ी-बड़ी नदियां आदि देख कर पानी से घबराता नहीं है और उन्हें सरलता से पार कर जाता है। सामान्यतया यह मानव और मानव बस्तियों से दूर रहना पसन्द करता है, किन्तु चारागाहों की कमी के कारण जब भोजन और पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता अथवा चीतल की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है तो ये खेतों को नुकसान पहुंचाने लगते हैं।
चीतल का प्रमुख शत्रु है-शेर। चीतल सांभर के समान शेर का प्रिय भोजन है। चीतल एक सीधा-सादा हिरन है। अतः सरलता से शेर का शिकार बन जाता है। शेर चीतल का शिकार प्रायः जल-स्रोतों के निकट करता है। जैसा कि अभी-अभी बताया गया है कि चीतल पानी का बड़ा शौकीन होता है। यह सर्दियों में भी प्रतिदिन पानी पीता है। चीतल का शिकार करने के लिये शेर उसका आने-जाने का रास्ता मालूम कर लेता है। वह जल-स्रोत के निकट ही छिप कर बैठ जाता है और इस खतरे से अनजान चीतल जैसे ही पानी पीने के लिये जल-स्रोत के निकट पहुंचता है, वह उसे अपना आहार बना लेता है।
चीतल के अन्य बड़े शत्रु हैं-तेंदुआ, भेड़िया, जंगली कुत्ते और अजगर। इनसे बचने के लिये चीतल का झुण्ड कभी एक जगह पर स्थायी रूप से नहीं रहता और अपना स्थान बदलता रहता है।
चीतल के प्रत्येक झुण्ड में एक चीतल पहरेदार का कार्य करता है। सामन्यतया यह कार्य मादा चीतल करती है। इसकी दृष्टि, घ्राण-शक्ति एवं श्रवण-शक्ति बहुत अच्छी होती है। यह खतरे का आभास होते ही अपने साथियों को सावधान करने के लिये तेज सीटी जैसी आवाज निकालती है। मादा चीतल का संकेत पाते ही कुछ पल के लिये सभी चीतल अपनी-अपनी गर्दन लम्बी करके निश्चल खड़े हो जाते हैं और अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसी दिशा में देखने लगते हैं, जिधर से खतरे का आभास मिलता है। सामान्यतया हिंसक जीव के दूर होने पर ये भाग कर किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाते हैं, किन्तु यदि वह बहुत पास होता है तो ये कुछ ही क्षणों में एक दूसरे के अत्यन्त निकट आ जाते हैं और आपस में मुंह मिलाकर इस तरह खड़े हो जाते हैं कि किसी एक चीतल को पहचाना नहीं जा सकता। यह विचित्र संरचना हिंसक पशुओं को धोखा देने के लिये की जाती है। मादा चीतल हमेशा इतनी सावधान रहती है कि छोटे-छोटे सियार जैसे हिंसक जीवों के निकट होने पर भी खतरे का संकेत देकर अपने झुण्ड को सावधान कर देती है। किन्तु यदि शेर या शेरनी आ जाये या निकट ही विश्राम करते हुए दिखायी दे जाये तो यह खतरे का संकेत नहीं देती, बल्कि उसी ओर गर्दन उठाये शान्त खड़ी रहती है तथा जब ये कम से कम 70-80 मीटर दूर चले जाते हैं तब खतरे का संकेत देती है।
चीतल की प्रजनन क्षमता बहुत अधिक होती है। इसके समागम एवं प्रजनन का कोई निश्चित समय नहीं होता। इनमें प्रायः पूरे वर्ष-भर समागम होता है।
चीतल का समागम बड़ा रोचक और आकर्षक होता है। यह समागम-काल में न तो सांभर के समान सीमाक्षेत्र बनाता है और न ही हरम का निर्माण करता है। चीतल के झुण्ड में नर, मादा और बच्चे सभी एक साथ रहते हैं। अतः नर चीतल को सीमाक्षेत्र या हरम बनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, किन्तु समागम-काल में नर चीतल के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ जाता है तथा यह कुछ उग्र और आक्रमक-सा दिखायी देने लगता है। इस काल में यह आसपास के किसी भी झुण्ड में घुस जाता है और समागम की इच्छुक मादा की खोज करता है। समागम की इच्छुक मादा न मिलने पर अन्य झुण्डों में घुसता है। नर चीतल की यह खोज उस समय तक चलती रहती है, जब तक कि उसे अपनी पसन्द की मादा नहीं मिल जाती। नर चीतल अपनी पसन्द की मादा चीतल प्राप्त करने के बाद झुण्ड से अलग हो जाता है और समागम के लिये किसी एकान्त क्षेत्र में चला जाता है। इस काल में वह मादा को अन्य नर चीतलों से बचा कर रखता है तथा उसकी पूरी तरह सुरक्षा करता है। कभी-कभी समागम की इच्छुक मादा के निकट एक साथ दो नर पहुंच जाते हैं इस प्रकार की स्थिति में दोनों नर एक दूसरे से लड़ते हैं और अन्त में विजेता नर चीतल मादा को प्राप्त करता है। प्रायः मादा चीतलों को नर चीतलों के मध्य होने वाली लड़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं होती है। प्रायः यह भी देखा गया है कि जिस मादा के लिये दो नर आपस में लड़ रहे होते हैं उसे तीसरा नर चुपचाप आकर, झुण्ड से अलग करके अपने साथ एकान्त में ले जाता है और समागम करता है।
मादा चीतल का प्रसवकाल 210 दिन से 238 दिन के मध्य होता है। प्रसवकाल पूरा होने पर मादा एक बच्चे को जन्म देती है, किन्तु कभी-कभी दो बच्चे होते हुए भी देखे गये हैं। चीतल अपने बच्चों को हमेशा अपने पास रखती हैं। इनके बच्चे तीन-चार वर्षों में वयस्क हो जाते हैं, अर्थात् प्रजनन के योग्य हो जाते हैं। नर चीतल के वयस्क होने पर उसके मृगश्रृंग निकल आते हैं। चीतल का जीवन-काल 12 वर्ष से 15 वर्ष तक होता है एवं इन्हें सरलता से पालतू बनाया जा सकता है और चिड़ियाघरों में रखा जा सकता है।
चीतल की प्रजनन क्षमता कभी-कभी इसके लिये घातक बन जाती है। हिंसक पशुओं के अभाव में इसकी संख्या इतनी तेजी से बढ़ती है कि इसे सरलता से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। एक बार उत्तर भारत से कुछ चीतल अंडमान द्वीप समूह ले जाये गये और वहां के जंगलों में छोड़ दिये गये। अण्डमान द्वीप समूहों पर चारागाह और पानी की पर्याप्त मात्रा थी। अतः कुछ ही वर्षों में इनकी संख्या इतनी अधिक हो गयी कि इनके लिये चारागाह कम पड़ने लगे और ये खेतों को नुकसान पहुंचाने लगे। इस समस्या से निपटने के अनेक प्रयास किये गये, किन्तु सभी विफल रहे। अन्त में भारत सरकार को दो तेन्दुए अंडमान द्वीप समूह में छोड़ने पड़े तब इनकी संख्या नियंत्रित हुई।
- डॉ. परशुराम शुक्ल
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