विश्व का एकमात्र चार सींगो वाला दुर्लभ प्रजाति का चौसिंगा हिरण : Four-horned Antelope

Dr. Mulla Adam Ali
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Four-horned Antelope and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Chousingha.

Four-horned Antelope : Indian Wildlife

four-horned antelope in india

Wildlife of India : चौसिंघा दिवाचर है, अर्थात् दिन के समय चरता है, किन्तु कभी-कभी दिन में पर्याप्त भोजन न मिलने पर इसे रात में भी चरते हुए देखा गया है। चौसिंघा के समान सांभर को भी रात्रि के समय चरते हुए कई बार देखा गया है, किन्तु सांभर की तुलना में चौसिंघा कम रात्रिचर है।

Chousingha Hiran 

चौसिंगा

चौसिंघा एक अत्यन्त प्राचीन वन्य प्राणी है। जीव शास्त्रियों के अनुसार चौसिंघा की शारीरिक संरचना एवं आकार में एक करोड़ पचास लाख वर्षों से कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। उदाहरण के लिये पहले केवल बैल और बकरे के ही सींग होते थे, गाय और बकरी के नहीं, किन्तु अब एक लम्बे समय से गाय-बैल, बकरा-बकरी, भेड़-मेढ़ा सभी के सींग निकलने लगे हैं। चौसिंघा की शारीरिक संरचना के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि यह विश्व का एकमात्र ऐसा वन्य प्राणी है जिसके सिर पर चार सींग होते हैं। इन्हीं सींगों के कारण ही इसे चौसिंघा या चार सींगों वाला गवय (एन्टीलोप) कहा जाता है।

चौसिंघा सुन्दर, छरहरे शरीर वाला एक शानदार गवय (एन्टीलोप) है। यह विश्व में केवल भारतीय उपमहाद्वीप में ही पाया जाता है। चौसिंघा हिमालय पर्वत के दक्षिणी भाग, खुले वनों एवं घास के मैदानों में बहुतायत से देखने को मिलता है। यह दक्षिण भारत के अनेक भागां में भी पाया जाता है, किन्तु मालाबार के जंगलों में कभी नहीं देखा गया। चौसिंघा घने जंगलों में रहना पसन्द नहीं करता। यह सांभर के समान ऊंचे-नीचे पर्वतीय क्षेत्रों, पतझड़ वाले सूखे वनों, नम स्थानों एवं घास के मैदानों में रहना अधिक पसन्द करता है। चौसिंघा उन स्थानों पर रहता है जहां सांभर, चीतल आदि हिरन रहते हैं। सम्भवतः यही कारण है कि इसमें हिरनों जैसी बहुत-सी आदतें विकसित हो गयी हैं। चौसिंघा को पानी से विशेष लगाव होता है। यही कारण है कि यह पानी वाले स्रोतों के निकट अपना निवास बनाता है। चौसिंघा खुले मैदान के मध्य से बहती हुई नदियों, तालाबों या निचले चट्टानी भौगों में एकत्रित होने वाले पानी के स्रोतों के निकट रहना अधिक पसन्द करता है। कभी-कभी यह गांव में मानव बस्तियों के निकट बहने वाली नदियों के निकट भी अपना निवास बनाता है। जिन क्षेत्रों में चौसिंघा पाया जाता है वहां इसे बस्तियों के पास घूमते एवं खेतों के निकट चरते हुए प्रायः देखा जा सकता है।

चौसिंघा कृष्ण-मृग के समान बड़े झुण्डों में नहीं रहता। यह सामान्यतया अकेले या जोड़े में देखने को मिलता है। कभी-कभी नर-मादा के साथ छोटे-छोटे बच्चे भी देखने को मिल जाते हैं।

अभी-अभी यह स्पष्ट किया गया है कि चौसिंघा विश्व का एकमात्र ऐसा वन्य-जीव है, जिसमें नर के सिर पर चार सींग होते हैं। चौसिंघा को प्रकृति ने चार सींग क्यों दिये? इसका कारण जीव वैज्ञानिक अभी तक नहीं मालूम कर सके हैं। नर चौसिंघा के सींग दूसरे गवयों की तुलना में छोटे होते हैं। इसके सिर पर दो सींग अपने सामान्य स्थान पर निकलते हैं। ये सीधे, चिकने और ऊपर की ओर नुकीले होते हैं। इनकी लम्बाई 9 सेन्टीमीटर से लेकर 12 सेन्टीमीटर तक होती है। सामान्य सींगों के ठीक सामने आंखों के ऊपर की ओर छोटे-छोटे दो अन्य सींग होते हैं, जिनकी लम्बाई डेढ़ सेन्टीमीटर से ढाई सेन्टीमीटर के मध्य होती है। चौसिंघा के सामान्य स्थान पर निकलने वाले सींगों का अभी तक का कीर्तिमान 18.4 सेन्टीमीटर और आंखों के ऊपर की ओर निकलने वाले सींगों का कीर्तिमान 7.6 सेन्टीमीटर है। मादा चौसिंघा के सिर पर सींग नहीं होते हैं।

गवय परिवार के वन्य जीवों की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि इनके सींग ऐंठे हुए या छल्लेदार होते हैं, जबकि चौसिंघा और नीलगाय के सींग सीधे एवं चिकने होते हैं। इसी आधार पर कुछ जीव वैज्ञानिक चौसिंघा और नीलगाय को गवय नहीं मानते। वे इन्हें एक विशिष्ट परिवार का वन्य प्राणी मानते हैं। चौसिंघा को गवय न मानने के दो अन्य कारण भी हैं। पहला- इनमें नर और मादा दोनों के खुरों के मध्य एक पूर्ण विकसित ग्रन्थि पायी जाती है, जो किसी भी अन्य गवय के नहीं होती। दूसरा-यह गवय परिवार के अन्य वन्य जीवों कृष्ण-मृग, नीलगाय आदि के समान झुण्ड बना कर नहीं रहता, बल्कि अकेले या बहुत छोटे-छोटे झुण्ड़ों में रहता है। इन विभिन्नताओं के होते हुए भी अधिकांश जीव वैज्ञानिक चौसिंघा को गवय मानते हैं।

चौसिंघा दुबला-पतला, इकहरे शरीर वाला गवय है। इसकी लम्बाई 90 सेन्टीमीटर से 100 सेन्टीमीटर तक एवं कंधों तक की ऊंचाई 60 सेन्टीमीटर से लेकर 65 सेन्टीमीटर के मध्य होती है। चौसिंघा का पिछला भाग अगले भाग की तुलना में अधिक ऊंचा होता है। मादा चौसिंघा नर से कुछ छोटी होती है। चौसिंघा के सिर और पीठ का भाग लालपन लिये हुए हल्के भूरे रंग का होता है तथा नीचे और पेट का भाग सफेद होता है। इसके चारों पैरों के सामने की ओर गहरे रंग की एक धारी होती है। यह धारी आगे के पैरों में पिछले पैरों की तुलना में चौड़ी होती है। इसकी आंखें दूसरे गवय की तुलना में कुछ छोटी होती हैं तथा आंखों के सामने चिंकारा और कृष्ण-मृग के समान काले रंग की छोटी-छोटी दो ग्रन्थियां होती हैं। मादा चौसिंघा के शरीर का रंग नर के समान होता है, किन्तु पैरों की धारियों में साधारण-सा अन्तर होता है। कृष्ण-मृग के समान ही चौसिंघा के शरीर का रंग भी आयु के अनुसार बदलता रहता है। कृष्ण-मृग की आयु जैसे-जैसे बढ़ती है, उसके शरीर का रंग गहरा भूरा या काला होता जाता है, इसके विपरीत चौसिंघा की आयु बढ़ने पर इसके शरीर का लालपन लिये हुए भूरा रंग धीरे-धीरे हल्का पीला होता जाता है और वृद्धावस्था में तो चौसिंघा पूरी तरह से हल्के पीले रंग का हो जाता है।

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चौसिंघा अपनी प्रजाति के अन्य गवय प्राणियों कृष्ण-मृग, चिंकारा तथा नीलगाय आदि की तरह शाकाहारी है। यह रात्रि के समय किसी वृक्ष के नीचे, झाड़ियों में अथवा ऊंची-ऊंची घास की ओट में या किसी सुरक्षित स्थान पर चैन से सोता है। चौसिंघा रात्रि में सोते समय भी खरगोश के समान सदैव सतर्क रहता है और हल्की-सी आहट सुनते ही फुर्ती से अपना निवास छोड़ देता है तथा लम्बी-लम्बी घास के बीच से छलांगें भरता हुआ झाड़ियों में अदृश्य हो जाता है। यह प्रातःकाल सूर्योदय के साथ ही अकेले भोजन की तलाश में निकल पड़ता है। इसकी चाल बड़ी शानदार और लुभावनी होती है। चौसिंघा भी चिंकारा के समान अपने शरीर को झटके देकर चलता है। चौसिंघा का प्रमुख भोजन घास-फूस, विभिन्न प्रकार की पत्तियां, फल तथा छोटी-छोटी झाड़ियां और वनस्पतियां हैं। यह दोपहर तक चरता है और फिर धूप अधिक होने पर किसी छायादार स्थान पर विश्राम करता है। सूर्य की गरमी कम होने पर यह पुनः चरने के लिये निकलता है और इसके बाद किसी नदी-नाले या जल-स्रोत की ओर निकल जाता है। चौसिंघा के लिये पानी अत्यन्त आवश्यक है। यह नियमित रूप से प्रतिदिन पानी पीता है और पानी पर पूरी तरह निर्भर करता है। पानी के समाप्त हो जाने पर यह अपना, स्थान छोड़ देता है और किसी नये स्थान की खोज में निकल पड़ता है। कभी-कभी यह भोजन की सुविधा के लिये जंगल के छोर पर अपना निवास बनाता है और पानी पीने के लिये मानव बस्तियों के निकट या गांव के किनारे बहने वाली नदियों तक आ जाता है।

चौसिंघा दिवाचर है, अर्थात् दिन के समय चरता है, किन्तु कभी-कभी दिन में पर्याप्त भोजन न मिलने पर इसे रात में भी चरते हुए देखा गया है। चौसिंघा के समान सांभर को भी रात्रि के समय चरते हुए कई बार देखा गया है, किन्तु सांभर की तुलना में चौसिंघा कम रात्रिचर है। चौसिंघा रात्रि में चरते समय हिंसक जीवों के प्रति अधिक सतर्क रहता है, क्योंकि प्रायः अधिकांश हिंसक जीव रात्रि के समय ही शिकार की खोज में निकलते हैं और गवय तथा हिरन आदि जीवों को अपना आहार बनाते हैं।

चौसिंघा को जंगल के सभी हिंसक जीवों का हमेशा खतरा बना रहता है, किन्तु इसका सबसे बड़ा शत्रु तेन्दुआ है। इसके साथ ही कभी-कभी शेर-शेरनी या इनके बच्चे भी चौसिंघा का शिकार करते हैं। हिंसक वन्य जीवों के कारण यह हमेशा सचेत रहता है, किन्तु खतरे का आभास होने पर यह नीलगाय की तरह अपने साथियों को किसी प्रकार की आवाज निकाल कर सचेत नहीं करता, बल्कि जिस ओर से खतरे की आशंका होती है, उसकी विपरीत दिशा की झाड़ियों में छलांग लगा देता है और फिर तेजी से खतरे वाले स्थान से दूर निकल जाता है।

चौसिंघा एक सीमित क्षेत्र में रहने वाला वन्य जीव है। इनमें नर तथा मादा में कोई विशिष्ट गंधयुक्त थैली तो नहीं होती, किन्तु यह गेंडे की तरह अपने मल-मूत्र द्वारा अपनी क्षेत्र सीमा बनाता है। सामान्यतया इसके क्षेत्र की सीमा किसी नदी का किनारा अथवा जल-स्रोत होता है। प्रत्येक सीमा की अपनी विशिष्ट पहचान होती है, जिससे सभी चौसिंघा भली-भांति परिचित होते हैं। चौसिंघा का समागम-काल अप्रैल-मई के महीनों में होता है। इस मध्य नर अपने सीमाक्षेत्र के प्रति विशेष रूप से सजग रहता है। प्रायः एक नर के क्षेत्र में दूसरा नर चौसिंघा प्रवेश नहीं करता है।

समागम-काल में मादा चौसिंघा अन्य मादाओं एवं अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ झुण्ड बना कर निकलती है। इसे आकर्षित करने के लिये नर चौसिंघा अपने मुंह से एक विशेष प्रकार की सीटी की आवाज निकालता है। अब मादा नर के क्षेत्र में प्रवेश करती है और अपना मल-मूत्र विसर्जित करके समागम हेतु अपनी स्वीकृति देती है। नर चौसिंघा समागम के बाद मादा के साथ नहीं रहता और दूसरी मादा की खोज में निकल पड़ता है। इस प्रकार वह प्रतिवर्ष चार से छः तक मादाओं के साथ समागम करता है। इसी तरह मादा चौसिंघा भी पुनः नये नर की खोज करती है और समागम-काल में पांच-छः नर चौसिंघों के साथ समागम का आनन्द प्राप्त करती हैं। मादा चौसिंघा का गर्भकाल काफी लम्बा होता है। प्रायः समागम के बाद आठ से साढ़े आठ माह के मध्य जनवरी-फरवरी में मादा एक बच्चे को जन्म देती है, किन्तु कभी-कभी दो अथवा तीन बच्चे भी एक साथ होते हुए देखे गये हैं।

चौसिंघा के नवजात बच्चों को पालने का कार्य मादा ही करती है। वह इन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाती है तथा लम्बे समय तक अपने साथ रखती है। चौसिंघा के बच्चों के सबसे बड़े शत्रु सियार और भेड़िये हैं। ये बच्चों के साथ ही साथ कभी-कभी मादा चौसिंघा पर भी आक्रमण कर देते हैं और उन्हें अपना आहार बना लेते हैं।

चौसिंघा एकान्त में रहने वाला वन्य जीव है। इसे सरलता से पालतू बनाया जा सकता है और चिड़ियाघरों में रखा जा सकता है, किन्तु नर चौसिंघा स्वभाव से कुछ आक्रामक होता है और शत्रु के अत्यन्त निकट होने पर सामने से आक्रमण कर देता है। यह सामान्यतया मानव से डरता है और उससे दूर रहना ही पसन्द करता है, किन्तु कभी-कभी मानव के असावधान होने पर यह उसे भी अपने नुकीले सींगों से घायल कर देता है।

चौसिंघा के अंधाधुंध शिकार एवं जंगलों की कटाई के कारण इसकी संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। अब यह केवल राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों और चिड़ियाघरों में ही शेष बचा है। इसकी संख्या में होने वाली कमी को देखते हुए भारत सरकार ने इसे विलुप्तप्रायः जीवों की सूची में सम्मिलित किया है एवं इसके शिकार पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिये हैं, किन्तु अभी तक इसके कोई उत्साहवर्द्धक परिणाम सामने नहीं आये हैं। चौसिंघा को बचाने के लिये विशेष प्रयासों की आवश्यकता है, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब विश्व का एकमात्र चार सींगों वाला प्राणी चौसिंघा भी भारतीय चीते के समान धरती से विलुप्त हो जायेगा।

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