Apne Samay Ka Surya Rashtrakavi Ramdhari Singh Dinkar Article by Poonam Singh, Mahakavi Dinkar Jayanti Special, Hindi Poet Dinkar (Poet and former Member of Rajya Sabha), Dinkar was awarded the Jnanpith Award in 1972 for Urvashi (Hindi Epic).
Hindi Ka Surya : Dinkar
'दिनकर' जयंती विशेष : पढ़िए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' पर डॉ. पूनम सिंह का महत्वपूर्ण लेख "समय का सूर्य दिनकर", मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं - दिनकर।
Samay Ka Surya - Dinkar
"समय का सूरज : दिनकर"
हिन्दी साहित्य का सूर्य नाम से प्रतिष्ठित रामधारी सिंह दिनकर जिनके प्रकाश की रोशनी से पूरा विश्व जगमगाया है। उन्होने अपने तप व आत्मविश्वास के बल पर खुद को अपने समय का सूर्य घोषित किया है-
"मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूँ मैं ।"¹
दैदीप्यमान नक्षत्र, हिन्दी साहित्य के तैतालिक , सूर्य कवि रामधारी सिंह दिनकर जिनके सम्पूर्ण साहित्य में राष्ट्र प्रेम की पूजा है, राष्ट्रीय संस्कृति के उन्नयन की अभिलाषा है, सामाजिक चेतना की युगाभिव्यक्ति है, ओज वीर तथा प्रसाद का समिश्रण है। ऐसे विराट व्यक्तित्व का महत्व न केवल हिन्दी साहित्य में वरन् विश्व साहित्य के जनमानस के हृदय की मुखर अभिव्यक्ति में स्पष्ट परिलक्षित होता है। दिनकर उन विरले साहित्यकारों में से एक है जिनके साहित्य और व्यक्तित्व में अद्भुत साम्य है। हिन्दी काव्य व्योम के दिनकर, संपूर्ण क्रांति मंत्र के दृष्टा और सृष्टा मौलिक चिन्तक एवं परिपक्व राष्ट्रकवि दिनकर ओज और तेजस्विता के कवि हैं। इनका कात्तिकारी व्यक्तित्व सभी को आकर्षित करता है। वह कलम को अपना हथियार बनाकर स्वतंत्रता संग्राम में उतरते हैं। इनके क्रांतिकारी स्वरूप के संदर्भ में रामवृक्ष बेनीपुरी ने कहा है "हमारे क्रान्तिकारी योग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है, क्रान्तिकारी कि जिन - जिन हृदय मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उसकी सच्ची तस्वीर है।"²
दिनकर विश्व साहित्य जगत में आत्मदीप्त सूर्य के समान प्रतिष्ठित हैं। उसका प्रकाश आज भी लोगों में अंधकार के खिलाफ लड़ने की शक्ति दे रहा है। दिनकर मात्र एक नाम नहीं बल्कि एक व्यक्तित्व है जिसने अपने नाम को सूर्य जैसा चमत्कृत किया है। ओज और पुंज से उन्होंने अपने साहित्य को रोचक बनाया है। उन्होंने अपनी वाणी की प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व को जागृत करते हैं। भारतीयों को अंधकार हतोत्साह से आगे बढने की प्रेरणा देते हैं। उनके काव्य मनोबल बढ़ाते हैं-
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्तकर
पुण्य -प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल अक्षरों
मे इतिहास तुम्हारा.
जिस मिट्टी ने लहू पिया
वह फूल खिलाएगी ही
अम्बर पर घन बन छाएगा
हो उच्छवास तुम्हारा
और अधिक ले जाँच,
देवता इतना कर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई !
मंजिल दूर नही है।"³ हिन्दी साहित्य के प्रखर सूर्य दिनकर अपने बेबाक कृतियों के कारण हमेशा से चर्चित रहे हैं। अपनी राष्ट्रीय चेतना और कात्तिकारी विचारों से हमेशा वे भारतीय जनमानस को प्रेरित करते रहे हैं। आज भी इनकी रचनाएँ कालजयी हैं।
दिनकर भारतीय संस्कृति तथा जमीन से जुड़े साहित्यकार रहे हैं। उनकी रचनाएँ समय- समय पर भारतीय युग चेतना को राष्ट्र की अस्मिता के प्रति आगाह किया है। जनमानस को राष्ट्रीयता से परिपूर्ण किया है। राष्ट्रकवि दिनकर की रचनाओं मे राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक की भावना का अद्भुत समन्वय है।डॉ.शिखरचन्द्र जैन ने लिखा है कि-" गुप्त जी की कविता मे राष्ट्र की चेतना समाज सुधार और धार्मिक औदात्य की सीमा से मुखारित हुई थी और दिनकर जी की कविता में राष्ट्रीयता का विकास, सामाजिक संघर्ष और राजनीतिक क्रांति से सीधा-सीधा जुड़ा है।"⁴
हिन्दी सूर्य जगत साहित्य के कवि दिनकर अपने क्रान्तिकारी विचारों के धनी थे। उनकी रचनाएँ आजादी के लिए छटपटाती हुई भारतीयों को स्वर दिया तथा उन्हे आगे कार्य करने को प्रेरित किया। उनकी रचनाएँ उत्साह और क्रान्ति से भरी हुई है जो निराशावादी भारतीयों के मन में आशा का संचार करती हैं। सूर्य कवि दिनकर अपने स्वच्छन्द विचार और ओजस्वी वाणी से हर वर्ग के पाठकों को आन्दोलित करते हैं। वे स्वयं कहते है कि- "राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर नहीं जन्मी, उसने बाहर से आकर मुझे आक्रांत किया। अपने समय की धड़कन सुनने की जब भी मैं देश के हृदय से कान लगाता, मेरे कान में किसी बम के धमाके की आवाज आती, फांसी पर झूलने वाले किसी नौजवान की निर्भीक पुकार आती अथवा मुझे दर्द भरी ऐठन की वह आवाज सुनाई देती जो गाँधी जी के हृदय में चल रही थी, जो उन सभी राष्ट्र नायकों के हृदय में चल रही थी, जिनसे बढ़कर में किसी और को श्रध्दा नहीं समझता था। मेरी समझ में उस समय सारे देश की एक स्थिति थी जो सार्वजनिक संघर्ष की स्थिति थी,सारे देश का एक कर्तव्य था जो स्वतंत्रता संग्राम को सफल बनाने का कर्तव्य था और सारे देश की एक मनोदशा भी जो क्रोध से क्षुब्ध आशा से चंचल और मजबूरियों से बेचैन थी।"⁵ देश की निवर्तमान मनोदशा को बनाए रखने में दिनकर की कविता औषधि का कार्य करती थी। सम्पूर्ण राष्ट्र के भाव का प्रतिनिधित्व करते थे।
दिनकर की काव्य चेतना राष्ट्रीयता के विकास की एक कड़ी है। उनकी राष्ट्रीय रचनाएँ इसलिए भी प्राणवान है कि वह भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक उनकी आकांक्षाओं में काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने में सक्षम हैं। दिनकर जी हिन्दी साहित्य परम्परा के वो अनमोल रत्न हैं जिन्होंने अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से देश निर्माण और स्वतंत्रता के संघर्ष में योगदान दिया। कलम आज उनकी जय बोल,सामधेनी , हुंकार, रेणुका, कुरुक्षेत्र, परशुराम की प्रतीक्षा, हिमालय जैसी प्रेरणादायक कविता के सृजनकर्ता दिनकर जितने बड़े ओज, वीर व शौर्य के कवि है, उतने ही बड़े संवेदना, श्रृंगार, प्रेम व सौंदर्य के कवि हैं। साहित्य के प्रखर सूर्य दिनकर अपने बेबाक साहित्यिक कृतियों के कारण हमेशा चर्चा में रहे हैं। वे अपनी राष्ट्रीय चेतना तथा क्रांतिकारी विचारों से भारतीयों को प्रेरित करते रहें। दिनकर वास्तविक रूप से युगद्रष्टा, क्रान्तिद्रष्टा है। इनके संदर्भ में उमा शुक्ला ने लिखा है कि-" दिनकर के युगद्रष्टा, युगस्रष्टा एवं युगज्ञाता तीनों रूपों की संश्लिष्टता का परिचय युग चेतना के सम्प्रेषण में जो प्रदर्शित दायित्व बोध के धरातल पर मिलता है। राष्ट्रकवि दिनकर ने गुलामी के कलंक को धोने के लिए ही देश-प्रेम से लबालब कविताओं के माध्यम से देशवासियों को नवजागरण का संदेश दिया।अतः युगीन परिस्थितियों की आँच में गलकर ढला दिनकर काव्य परतन्त्रता से मुक्ति के लिए किए गये संघर्ष का ज्वलन्त उदाहरण है। वास्तव में दिनकर की कविता युगवाणी के रूप में स्वीकृत हुई और वे युगकवि के रूप में मान्य हुए।अतः सच्चे अर्थों में वे युगकवि है, समकालीन जन-जीवन के कवि हैं, धरती और धूल के कवि हैं। वे ज्वाला और तूफान के ऐसे कवि हैं जो युग भावना की बाढ़ में अपना स्वर मिलाए बिना नहीं रह सके। दिनकर अपने पूरे काव्य में अपनी निश्चित आस्थाओं में जिए हैं।"⁶
सूर्यकवि दिनकर अतिन्द्रियता से भारतीय जनमानस को मुक्त कराने का कार्य अपनी विद्रोही रचनाओं के माध्यम से बड़े उत्साह एवं साहस से किया है। युग की पुकार सुनकर लोगों को जागृत करने का कठिन बीड़ा उठाया। जनमानस में जागरण का महामंत्र फूंका ।सही संदर्भों में दिनकर जी ने कभी कवि धर्म से मुख नहीं मोडा। वे स्वयं कवि का परिचय भी इसी स्वरूप में प्रस्तुत करते हैं, जो सही रूप में जनजागरण का कार्य करता है। उनके कर्म के प्रति वे इंगित करते हैं कि -
"मानवों में देवता जो सो रहे, उनको जगाते हैं।
रात्रि के ये क्रोध हैं
हुंकार भरते है तिमिर मे
और हाहाकार करके भोर करते हैं।"⁷ सच में उनकी कविताओं ने जनजागरण का संदेश सम्पूर्ण भारतवर्ष के घर-घर में पहुँचाया है।
युग की चेतना की कड़वी अभिव्यक्ति दिनकर के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है। देशभक्ति से परिपूर्ण दिनकर की कविताओं में युग चेतना कई स्तरों पर प्रतिफलित हुई है। उनका सम्पूर्ण साहित्य भारतीयता का जीता-जागता प्रमाणपत्र है। दिनकर ने अपनी रचनाओं के माध्यम से एक ओर जहाँ परतंत्र भारतीयों को पौरुष का ओजस्वी संदेश दिया है, वहीं स्वतंत्र भारत में राजनीतिक दबावों के कारण घुसपैठ, भाई- भतीजावाद, घुसखोरी तथा भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली अराजकता एवं मूल्यहीनता की भयावह स्थितियों को भी उन्होने ध्वनित किया है। आज वास्तविक रूप से राजनीतिक अव्यवस्था ही नहीं व्याप्त है, बल्कि मनुष्य चारो तरफ से टूटता नजर आ रहा है। वैयक्तिक दृष्टिकोण को व्यक्त करने वाली रचनाओं में दिनकर ने व्यक्ति के अन्दर छिपी अपार शक्ति और सम्भावनाओं को उजागर करते हुए उसके प्रति जो अटूट विश्वास व्यक्त किया है वह एक युगद्रष्टा ही कर सकता है। दिनकर की इन पंक्तियों में इसे देखा जा सकता है -
फूँक-फूँक कर विष लपट, उगल जितना हो जहर हृदय में।
यह बंसी निर्ररल, बजेगी सदा शान्ति के लय में।
पहचाने किस तरह भला तू निजविष का मतवाला
मैं हूँ साँपों की पीठों पर कुसुम लादने वाला
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विषकारी ! मत डोल कि मेरा आसन बहुत बड़ा है।
कृष्ण आज लघुता में भी साँपो से बहुत बड़ा है।"⁸
दिनकर के काव्य में राष्ट्र के प्रति गौरव, गान के साथ राजनीति तथा सामाजिक क्रांति के जो प्रखर स्वर गूंजते थे, उसने असंख्य युवाओं के हृदयों को स्फूर्ति से अविभूत कर दिया था। उन्होने क्रान्ति की अर्चना उग्रतावादी स्वरों से की है। वे ऐसा राग गाना चाहते हैं जिससे सम्पूर्ण विश्व काँप उठे। उन्होने देश में व्याप्त पाखंड, अत्याचार,आडम्बर तथा अहंकार को दूर करने के लिए शिवजी के ताण्डव की कामना करते हैं-
"दो आदेश फूँक दूँ श्रंगी,
उठे प्रभाती राग महान
तीनों काल स्वनित हो स्वर में
जागे सुप्त भवन के प्राण
गत विभूति भावी की आशा
ले युगधर्म, पुकार उठे
सिंहों की घन -अंध गुहा में
जागृत की हुकार उठे।"⁹
दिनकर ने अपने युग का प्रतिनिधित्व अपनी रचनाओं में किया है। उनकी सोच राष्ट्रवादी सोच है और स्वदेश गौरव तथा स्वाभिमान उनमे कूट-कूटकर भरा हुआ है। वे सच्चे अर्थों में हिन्दी साहित्य जगत के सूर्य तथा गगन हैं। डॉ. देवी प्रसाद गुप्त दिनकर के सन्दर्भ में लिखते हैं कि - " कवि श्री दिनकर की काव्य साधना का समारंभ राष्ट्रीयता स्वाधीनता संग्राम की बेला में हुआ जब जनमानस उत्कृष्ट राष्ट्रीय भावनाओं से आंदोलित था, स्वतंत्रता की बलिबेदी पर सर्वस्व समर्पण की होड़ लगी थी, क्रांति की अनुगूंज एक प्रबल उद्घोष बन चुकी थी, विरोध, विद्रोह, विध्वंस और विप्लव को लोगों ने अस्त्र के रूप में वरण कर लिया था। ऐसी परिस्थितियो में एक युवा कवि का क्रांति बन जाना सहज स्वाभाविक था।"¹⁰
हिन्दी साहित्य में कल्पवृक्ष के समान अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाले, साहित्य जगत में ध्रुव तारे की भाँति चमकने वाले एवं राष्ट्र को एक नई दिशा देने वाले 'समय का सूर्य : दिनकर' साहित्य जगत में उनका अद्वितीय स्थान है। दिनकर के अनुसार सच्चा काव्य वही है जो समाज में क्रान्तिकारी भावना को जागृत करे । इसीलिए उन्होंने अपनी रचनाओं मे क्रांतिकारी भावना को वाणी दी है। यह बातें सत्य है जो कार्य बड़े- बड़े विद्वान नहीं कर सके हैं वहीं बातें कवि अपनी कविता में कह देता है। इसीलिए कहा गया है- 'जहाँ न पहुँचे रवि वही पहुंचे कवि' कवि अपने शब्दों में शक्ति भर सकता है, उसी शक्ति से समाज को प्रगति के पथ पर ले जा सकता है। वह सदा अपने समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है। दिनकर जी स्वयं कहते हैं कि- "मै समय का पुत्र हूँ और मेरा सबसे बडा कार्य यह है कि मैं अपने युग के क्रोध और आक्रोश को अधीरता और बेचैनियो को सबलता के साथ छन्दों में बाँधकर सबसे सामने उपस्थित कर दूँ।"¹¹
दिनकर की कविताओं में भारतीय इतिहास की गौरवगाथा एवं परम्परा से विकासशील भारतीय समाज का चित्रण हुआ है। वे 'संस्कृति के चार अध्याय' में भारतीय समाज के विभिन्न रूपों का वर्णन किया है। भारतीय रीति-रिवाज, पम्परा, संस्कार, भाषा-रहन- सहन जो कि संस्कृति के प्रधान तत्व हैं। इनको आत्मसात करने के लिए यह पुस्तक प्राणवान है। 'संस्कृति के चार अध्याय' में दिनकर जी लिखते हैं कि - "कई प्रकार की औषधियों को कड़ाही में डालकर जब काढ़ा बनाते हैं, तब उस काढ़े का स्वाद हर एक औषधि के अलग-अलग स्वाद से सर्वथा भिन्न हो जाता है।असल में उस काढ़े का स्वाद सभी औषधियों के खादों के मिश्रण का परिणाम होता । भारतीय संस्कृति भी इस देश में आकर अनेक जातियों की संस्कृतियों के मेल से तैयार हुई है।"¹² भारतीय संस्कृति का आधार आध्यात्मिक भी है। दिनकर की काव्ययाला वर्तमान से अतीत की ओर तक है।
भारतीय संस्कृति की विशेषता सत्यं, शिवम्, सुंदरम् के समन्वित रूप में दिखाई पड़ती है। जिससे विज्ञान, धर्म, एवं कला को प्रेरणा एवं संजीवनी शक्ति मिलती है। क्योंकि सूर्य कवि दिनकर के मतानुसार मानव जाति का कल्याण ही हमारा श्रेय है一
श्रेय वह विज्ञान का वरदान
हो सुलभ सबको सहज जिसका रुचिर अवदान
श्रेय वह नर बुद्धि का शिव रूप अविष्कार
हो सके जिसके प्रकृति सबसे सुखों का भार
मनुज के श्रम के अपव्यय की प्रथा रुक जाय
सुख-समृद्धि-विधान में नर के प्रकृति झुक जाए।"¹³ इस तरह सत्यं, शिवम्, सुंदरम् के उदात्त वैचारिक धरातल पर जन्मने वाली दिनकर की कविताओं में ऐसी सुन्दर प्रबल अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।
साहित्य के कर्ण दिनकर की रचनाओं में भारत के सांस्कृतिक स्वरूप का जितना सुन्दर चित्रण हुआ है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। इनका काव्य भारतीय संस्कृति व भारतीयता से परिचित कराता है। प्रसाद जी की दृष्टि मे यदि अन्य देश मानवों की जन्मभूमि है, तो भारत अखिल मानवता की जन्मस्थली है। पंत ने इसे ज्योति भूमि के रूप में चित्रित किया है। दिनकर की दृष्टि में दुनिया के नक्शे पर अंकित त्रिभुजाकार क्षेत्र ही भारत नहीं है बल्कि इससे अलग और कहीं अधिक महत्वपूर्ण वह भारत है जो विश्व का सांस्कृतिक सिरमौर है, जो शांति का अग्रदूत और सत्य तथा न्याय का अधिष्ठाता है। जिसके हाथों में में धर्म की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित है। उन्ही के शब्दों में वर्णित है-
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं कहीं, शील यह भू-मंडल भर का है।
जहाँ कहीं एकता अखण्डित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा, भारत जीवित भास्वर है।।"¹⁴
निष्कर्षतः दिनकर हिंदी साहित्य के गौरव हैं।उनकी रचनाएँ भारत के "वसुधैव कुटुम्बकम्" की इसी पवित्र भावना से अभिसिंचित है। वे भारतीय संस्कृति के सच्चे रक्षक, कान्तिकारी चिंतक, अपने युग का सूर्य, भारतीय जनजीवन के निर्भीक शंखनाद रहे हैं। उनका क्रान्तिकारी व्यक्तित्व ज्वलंत प्रतिभा का परिचायक है। इन्होंने रचनाओं के माध्यम से राष्ट्र की आशाओं -आकांक्षाओं को सदैव वाणी दी है। गुप्त जी के बाद इन्हें ही राष्ट्रकवि की पदवी मिली। इन्हें सूर्यकवि, युगचरण, राष्ट्रीय चेतना का वैतालिक, साहित्य का कर्ण, जन जागरण का अग्रदूत जैसे विशेषण प्राप्त हैं। दिनकर सचमुच देश के ऐसे सूर्य हैं जो कभी अस्त नहीं होंगे, जिनके तेज से सम्पूर्ण समाज को समय-समय पर नई दिशा मिलती रहेगी। ऐसे उत्कृष्ट तेजस्वी साहित्यकार को आज के युवाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए जिससे एक नई उर्जा मिलेगी।
संदर्भ सूची;
- दिनकर-उर्वशी पृ.28 उदयाचल पटना
- डॉ द्वारिका प्रसाद सक्सेना- हिंदी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि पृष्ठ 363 अग्रवाल पब्लिकेशन आगरा
- दिनकर -सामधेनी पृ०11 द्वि सं० उदयाचल पटना 1949
- डॉ०शिखर चंद्र जैन -राष्ट्रकवि दिनकर और उनकी काव्य कला (भूमिका से) जयपुर पुस्तक सदन, जयपुर
- एम०एच०डी०-आधुनिक हिंदी काव्य (में संकलित दिनकर का कथन)पृष्ठ संख्या 66 इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय 2011
- डॉ पुष्पा ठक्कर- दिनकर काव्य में युग चेतना-(डॉ उमा शुक्ला का कथन प्राक्कथन से)पृष्ठ 6 अरविंद प्रकाशन मुंबई 1986
- दिनकर -सीपी और शंख पृ08
- दिनकर- नीलकुसुम पृ 10,11 द्वि० सं०1956
- दिनकर -रेणुका ( मंगल आह्वान) पृ० ख, ग उदयाचल पटना 1954
- देवी प्रसाद गुप्त- राष्ट्रकवि दिनकर और उनका साहित्य पृष्ठ संख्या 55
- दिनकर- चक्रवाल ( भूमिका से) पृ० 31
- दिनकर- संस्कृति के चार अध्याय पृ०38
- दिनकर- कुरुक्षेत्र पृ०80 , 20वां संस्करण सन् 1971
- दिनकर -नील कुसुम , (किसको नमन करूं मैं? कविता) द्वितीय सं० पृष्ठ 94,95
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