Blackbuck and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Kaala Hiran in Hindi.
Blackbuck : Indian Wildlife
Wildlife of India : कृष्ण-मृग (Indian Antelope) शाकाहारी वन्य जीवों में विश्व का सबसे तेज गति से दौड़ने वाला वन्यजीव है और अब भारतीय चीते के विलुप्त हो जाने के बाद भारत के सभी मांसाहारी एवं शाकाहारी जीवों में सर्वाधिक तेज गति से दौड़ने वाला वन्य जीव बन गया है।
Indian Antelope
कृष्ण मृग (काला हिरण)
कृष्ण-मृग भारत का सर्वाधिक सुन्दर गवय (एन्टीलोप) है और केवल भारत व पाकिस्तान में पाया जाता है। भारत में यह उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, पंजाब, उड़ीसा, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा आन्ध्र प्रदेश के कम घने जंगलों एवं छोटी घास के मैदानों में देखने को मिलता है। कृष्ण-मृग राजस्थान के रेगिस्तानी भेदानों एवं उन जंगलों में भी पर्याप्त मात्रा में रहता है जहां शेरों का निवास होता है, किन्तु यह पर्वतीय क्षेत्रों, दलदल वाले भागों, नदियों एवं झीलों के किनारे तथा घने जंगलों में नहीं पाया जाता। अठारहवीं सदी के आरम्भ में यह पूरे भारत में फैला हुआ था एवं इसकी संख्या लाखों में थी, किन्तु अब भारत में दस हजार से भी कम कृष्ण-मृग शेष बचे हैं।
विश्व के सभी वन्य जीवों में चीता सबसे तेज दौड़ता है। इसकी गति 100 से 112 किलोमीटर प्रतिघन्टा समझी जाती है, जबकि कृष्ण-मृग 90 से 100 किलोमीटर प्रतिघन्टा की गति से भाग सकता है। जिस समय कृष्ण-मृग पूरी गति से भाग रहा हो, उस समय इसे चीते के अतिरिक्त और कोई वन्य-जीव नहीं पकड़ सकता। युवा कृष्ण-मृग चौकड़ी भरते हुए भागता है। यह एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी और फिर चौथी चौकड़ी एक साथ भर सकता है। इसकी एक-एक चौकड़ी 5-6 मीटर लम्बी होती है। समतल मैदानी भागों में कृष्ण-मृग का चौकड़ी भरते हुए भागने का दृश्य बड़ा मनोहरी होता है। इस समय इसे देखने से ऐसा लगता है मानो यह हवा में उड़ रहा हो या स्प्रिंग की सहायता से छलांगें लगा रहा हो।
मुगलकाल में कृष्ण-मृग का उपयोग चीते के शिकार के लिये किया जाता था। इसके लिये सर्वप्रथम कृष्ण-मृग को प्रशिक्षित किया जाता था और फिर उसे ऐसे क्षेत्र में छोड़ दिया जाता था जहां चीतों की सम्भावना होती थी। चीता कृष्ण-मृग को देखते ही उसका पीछा करता था। कृष्ण-भृग एक निश्चित मार्ग से भागता हुआ ऐसे स्थान से गुजरता था जहां किसी मचान पर शिकारी हाथों में बन्दूक लिये हुए तैयार बैठा रहता था। कृष्णमृग तो मचान के सामने से छलांगें मारता हुआ निकल जाता था, किन्तु चीता शिकारी की गोली का निशाना बन जाता था।
कृष्ण-मृग शाकाहारी वन्य जीवों में विश्व का सबसे तेज गति से दौड़ने वाला वन्यजीव है और अब भारतीय चीते के विलुप्त हो जाने के बाद भारत के सभी मांसाहारी एवं शाकाहारी जीवों में सर्वाधिक तेज गति से दौड़ने वाला वन्य जीव बन गया है।
कृष्ण-मृग की सहायता से जिस प्रकार चीते का शिकार किया जाता था, उसी प्रकार प्रशिक्षित चीते की सहायता से कृष्ण-मृग का शिकार किया जाता था। कहते हैं कि मुगल बादशाह अकबर के पास एक हजार शिकारी चीते थे। इन्हें बन्द बैलगाड़ियों में कृष्ण-मृग के चरने वाले स्थानों पर ले जाया जाता था और चुपचाप छोड़ दिया जाता था। चीते अपनी तेज गति के कारण कृष्ण-मृगों का सरलता से शिकार कर लेते थे। मुगलों के बाद ब्रिटिश शासन काल में भी चीतों और कृष्ण-मृगों का अंग्रेजों द्वारा निर्दयता से शिकार किया गया, जिससे चीता तो विलुप्त हो गया और कृष्ण-मृग विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया।
कृष्ण-मृग को लोग सामान्यतया मृग अर्थात् हिरन समझते हैं, किन्तु यह हिरन नहीं है। यह एक गवय (एन्टीलोप) है। भारत में इसके अतिरिक्त तीन और भी गवय पाये जाते हैं। ये हैं-चौसिंघा, चिंकारा और नीलगाय । इनके सींग हिरनों के समान प्रतिवर्ष झड़ते नहीं हैं, जबकि सांभर, चीतल, हांगुल आदि सभी हिरनों के मृगशृंग (एन्टलर्स) प्रतिवर्ष गिर जाते हैं और फिर नये मृगशृंग निकल आते हैं।
कृष्ण-मृग अपनी तरह के अन्य प्राणियों की तुलना में सर्वाधिक सुन्दर वन्य प्राणी है। अफ्रीका में हिरन और गवय की सबसे अधिक प्रजातियां पायी जाती हैं, किन्तु उनमें एक भी कृष्ण-मृग के समान सुन्दर नहीं होती। कृष्ण-मृग एकमात्र ऐसा गवय है जिसमें नर और मादा का रंग अलग-अलग होता है। नर कृष्ण-मृग की गर्दन, सिर, पीठ और पैरों का रंग गहरा भूरा अथवा काला होता है। इसका पेट एवं पैरों के भीतर का भाग सफेद होता है। कृष्ण-मृग की त्वचा पर छोटे-छोटे बाल होते हैं तथा दोनों आंखों के चारों ओर सफेद रंग का घेरा होता है। इसकी लम्बाई 75 सेन्टीमीटर तक, ऊंचाई 60 सेन्टीमीटर से 70 सेन्टीमीटर तक एवं वजन लगभग 40 किलोग्राम होता है। इसकी पूंछ बहुत छोटी लगभग 15 सेन्टीमीटर होती है एवं इसके नीचे का भाग सफेद होता है। दक्षिण भारत में पाये जाने वाले कृष्ण-मृग का रंग उत्तर एवं मध्य भारत के कृष्ण-मृग के समान होता है, किन्तु यह काले रंग का नहीं होता। दक्षिण भारत के कृष्ण-मृग का रंग प्रायः गहरा भूरा होता है।
मादा कृष्ण-मृग का आकार नर से छोटा होता है। इसकी लम्बाई 70 सेन्टीमीटर से लेकर 80 सेन्टीमीटर तक कंधों तक की ऊंचाई 55 से 60 सेन्टीमीटर तक और वजन 30 किलाग्राम से 35 किलोग्राम के मध्य होता है। मादा कृष्ण-मृग का शरीर पीलापन लिये हुए रेतीले हल्के भूरे रंग का होता है। आरम्भ में नर और मादा के शरीर का रंग एक जैसा होता है, किन्तु तीन वर्ष की आयु के बाद नर के शरीर का रंग बदलना आरम्भहो जाता है और जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसके शरीर का रंग गहरा होता जाता है। वृद्ध कृष्ण-मृग का शरीर सर्वाधिक गहरा भूरा अथवा काला होता है।
कृष्ण-मृग की सुन्दरता का आधार है इसके सींग। इसमें केवल नर कृष्ण-मृग के सींग होते हैं, जिनकी लम्बाई 45 से 55 सेन्टीमीटर तक होती है। दक्षिण भारत में पाये जाने वाले कृष्ण-मृगों के सींग अपेक्षाकृत छोटे होते हैं। कृष्ण-मृग के सींग लम्बे, नुकीले और सीधे होते हैं तथा दूर से देखने पर अंग्रेजी के 'वी' के समान मालूम पड़ते हैं। इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये चिकने न होकर पेंच के समान ऐंठे हुए होते हैं एवं इनमें चार-चार घुमावदार मोड़ होते हैं। कुछ कृष्ण-मृगों के सींगों में पांच मोड़ होते हैं, किन्तु ऐसा बहुत कम होता है। सामान्यतया मादा कृष्ण-मृग के सींग नहीं होते, किन्तु कभी-कभी छोटे-छोटे सींगों वाली मादाएं भी देखने को मिल जाती हैं।
कृष्ण-मृग की श्रवण-शक्ति एवं घ्राण-शक्ति सामान्य होती है, किन्तु दृष्टि बहुत तेज होती है। यह लम्बी दूरी तय करने वाला विश्व का सबसे तेज गवय है और पांच-छः मीटर चौड़ी खाइयां बड़ी सरलता से फांद जाता है। यही कारण है कि शेर तक इसका शिकार नहीं कर पाता।
कृष्ण-मृग सामान्यतया 30-40 के झुण्ड में रहने वाला वन्य-प्राणी है। एक समय था जब यह हजारों के झुण्ड में रहता था। आज भी कभी-कभी शिवपुरी (मध्य प्रदेश) जिले के करैरा, सोनचिरैया अभयारण्य में इसके दो सौ से तीन सौ तक के झुण्ड देखने को मिल जाते हैं। कृष्ण-मृग के प्रत्येक झुण्ड में एक वृद्ध नर अनेक युवा नर तथा मादाएं व छोटे-छोटे बच्चे होते हैं। इनमें झुण्ड का नेतृत्व हमेशा एक अनुभवी मादा ही करती है, किन्तु उसका समागम के योग्य होना आवश्यक है।
कृष्ण-मृग एक शाकाहारी प्राणी है। यह जुगाली करता है। कृष्ण-मृग भोजन को बिना चबाये पहले निगल जाता है और बाद में उसे मुंह में उगल कर धीरे-धीरे चबाता है। यह घास-फूस, फल-फूल, खेजड़ी, बिलायती बबूल की फलियां, छोटे-छोटे पौधों की पत्तियां, झाड़ियां तथा आस-पास की फसलें आदि बड़े चाव से खाता है। गेंहूं और चने के खेत इसे विशेष रूप से पसन्द हैं। यही कारण है कि किसान इसे अपना शत्रु समझते हैं। कृष्ण-मृग प्रातःकाल झुण्ड बना कर भोजन की खोज में निकलता है और दोपहर होने के पूर्व किसी छायादार झाड़ी अथवा ऐसे स्थान पर वापस आ जाता है, जहां यह शाम तक आराम कर सके। शाम होने पर यह पुनः भोजन की तलाश में निकलता है और अंधेरा होने से पहले तक घास-फूस आदि खाता रहता है।
अपनी तरह के अन्य प्राणियों की तरह कृष्ण-मृग भी हमेशा सचेत रहता है और खतरे का आभास होते ही सर्वप्रथम अपने शत्रु की तलाश करता है और फिर अपने झुण्ड से अलग होकर विपरीत दिशा में दूर निकल जाता है। कृष्ण-मृग इतनी तेज दौड़ता है कि इसका पीछा करके इसे सिंह या शेर जैसे शक्तिशाली जीव भी नहीं पकड़ सकते, किन्तु तेन्दुए से यह बच नहीं पाता। तेन्दुआ सामान्यतया धीरे-धीरे बिना आवाज किये इसके निकट पहुंचता है और किसी झाड़ी में छिप जाता है तथा जैसे ही कृष्ण-मृग इसके निकट आता है यह फुर्ती से उस पर आक्रमण कर देता है और उसे अपना शिकार बना लेता है।
समागम-काल में कृष्ण-मृग के झुण्ड टूट जाते हैं और हरम बन जाते हैं। एक हरम में एक नर तथा अनेक मादाएं होती हैं। इस समय यदि झुण्ड में अल्प वयस्क नर या छोटे बच्चे होते हैं तो उन्हें भी अलग कर दिया जाता है। अपना हरम बनाने के बाद नर कृष्ण-मृग मादाओं के सामने सिर उठा कर खड़ा होता है तथा एक विशेष प्रकार की गुरराने की आवाज निकाल कर अपना प्रभुत्व प्रदर्शित करता है।
कृष्ण-मृग का समागम-काल मुख्य रूप से फरवरी-मार्च होता है। किन्तु इनमें प्रजनन प्रायः सभी ऋतुओं में देखने को मिलता है। समागम काल में कभी-कभी एक ही मादा के निकट दो नर आ जाते हैं। इस प्रकार की स्थिति होने पर दोनों में भयानक संघर्ष होता है और अन्त में विजेता नर को मादा कृष्ण-मृग प्राप्त होती है।
मादा कृष्ण-मृग का गर्भकाल लगभग 180 दिन होता है, अर्थात् छः - महीने के बाद मादा कृष्ण-मृगं बच्चे को जन्म देती है। सामान्यतया बच्चों की संख्या एक या दो होती है। इस प्रकार मादा कृष्ण-मृग एक वर्ष में दो बार प्रजनन कर सकती है। इसके बच्चों का विकास बड़ी तेजी से होता है और ये छः माह में ही बड़े दिखायी देने लगते हैं। कृष्ण-मृग के बच्चों की सुरक्षा एवं पालन-पोषण का कार्य मादा ही करती है। प्रायः जंगली कुत्ते, भेड़िये, सियार आदि हिंसक वन्य-पशु एवं चील, बाज जैसे शिकारी पक्षियों से नवजात बच्चों को हमेशा खतरा बना रहता है। ये इनके प्रमुख शत्रु हैं। इनसे बचाने के लिये मादा कृष्ण-मृग अपने बच्चों को लम्बी-लम्बी घासों में छिपा कर रखती है। कभी-कभी सियार, भेड़िया या जंगली कुत्ते इसके बच्चों के ठीक सामने आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में यह अपने बच्चों को बचाने के लिये स्वयं उनके सामने आ जाती है और अपने बच्चों को पीछे कर देती है। अब हिंसक जीवों का ध्यान बच्चों से हट जाता है और वे मादा का शिकार करने के लिये उसके पीछे भागते हैं। मादा कृष्ण-मृग पहले तो धीमी गति से भागती है और जब हिंसक जीव बच्चों से काफी दूर हो जाते हैं तो लम्बी-लम्बी छलांगें लगाती हुई हिंसक जीवों से दूर निकल जाती है और पुनः आकर अपने बच्चों से मिल जाती है। जन्म के समय इसके बच्चों का रंग बादामीपन लिये हुए हल्का पीला होता है, किन्तु तीन वर्ष बाद नर के शरीर का रंग बदलने लगता है और वह काला अथवा गहरे भूरे रंग का हो जाता है। इसके सींग एक वर्ष में निकलते हैं, किन्तु आरम्भ में ये घुमावदार नहीं होते। मादा कृष्ण-मृग 20 से 25 माह में प्रजनन के योग्य हो जाती है, जबकि नर 24 से 30 माह के मध्य प्रजनन के योग्य होता है।
वृद्ध कृष्ण-मृग अपने बच्चों को किशोर होते ही झुण्ड से अलग कर देते हैं। झुण्ड से अलग किये गये किशोर बच्चे कुछ समय अपनी आयु के किशोरों के साथ व्यतीत करते हैं और फिर युवा होते ही अपना हरम बना लेते हैं। कृष्ण-मृग का जीवन अधिक लम्बा नहीं होता।
कृष्ण-मृग को बचाने में राजस्थान के विश्नोई समाज का विशेष योगदान है। विश्नोई समाज के लोग बड़ी धार्मिक प्रवृति के होते हैं। इनके समाज में कृष्ण-मृग को धार्मिक मान्यता प्राप्त है और इसकी रक्षा करना परम कर्तव्य समझा जाता है। यही कारण है कि राजस्थान के खेजरकी क्षेत्र और जोधपुर के निकट बने धोली अभयारण्य में कृष्ण-मृगों की संख्या बढ़ी है। यहां इन्हें प्रायः गांव की बस्तियों के निकट घूमते हुए भी देखा जा सकता है।
एक समय था जब भारत में कृष्ण-मृगों की संख्या लाखों में थी, किन्तु सुन्दर सींगों, त्वचा और मांस के लिये इनका इतना अधिक शिकार किया गया कि अब इनकी संख्या कुछ हजारों में ही बची है। भारत में कृष्ण-मृग की घटती हुई संख्या को देखते हुए इसका नाम दुर्लभ प्राणियों की प्रस्तक 'रेड डाटाबुक' में सम्मिलित कर लिया गया है और इसे बचाने के लिये विशेष प्रयास आरम्भ कर दिये गये हैं। कृष्ण-मृग की संख्या में वृद्धि के लिये राजस्थान के गजनेर अभयारण्य, तालछापर अभयारण्य एवं मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, घाटी गांव क्षेत्र, सोनचिरैया अभयारण्य करैरा (शिवपुरी म. प्र.) को उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई है। इन सभी स्थानों पर इसकी संख्या बढ़ी है, किन्तु इन स्थानों को छोड़कर अन्य सभी स्थानों पर कृष्ण-मृग की संख्या निरन्तर गिर रही है।
कृष्ण-मृग भारतीय वन्य जीवन का गौरव है। इसे बचाने के लिये अतिविशिष्ट प्रयास आवश्यक हैं। 'इन्साइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन नेचुरल हिस्ट्री' के अनुसार सन् 1940 में भारत में अस्सी हजार से अधिक कृष्ण-मृग थे, किन्तु आजादी के बाद इनका इतनी तेजी से शिकार किया गया कि सन् 1964 तक इनकी संख्या घटकर आठ हजार से भी कम रह गयी।
कृष्ण-मृग एक सीधा और गवय है तथा इसे सरलता से पालतू बनाया जा सकता है और चिड़ियाघरों में रखा जा सकता है। नर कृष्ण-मृग के सींगों और आक्रामक स्वभाव के कारण लोग इसे नहीं पालते, किन्तु कभी-कभी मादा कृष्णमृग या उसके बच्चे को लोग पाल लेते हैं। पालतू बच्चा बड़े आराम से बकरी के थन में मुंह लगा कर दूध पीने लगता है तथा बड़ा होकर बकरियों के साथ चरने लगता है। पालतू मादा कृष्ण-मृग को प्रजनन योग्य होने पर बकरे के साथ समागम करते हुए और बच्चों को जन्म देते हुए देखा गया है।
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