The Nilgai and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Nilgai Hiran in Hindi.
Nilgai : Indian Wildlife
Wildlife of India : नीलगाय (Nilgai) की शारीरिक संरचना गाय, भैंस, बकरी, घोड़े, हिरन तथा गवय सभी से अलग होती है। इसके शरीर का अगला भाग ऊपर उठा हुआ और पीछे का भाग नीचा होता है। इसकी अगली पसलियां बड़ी तथा चौड़ी और कूल्हे की हड्डी ऊंची होती है। अपनी इसी असंतुलित शारीरिक संरचना के कारण यह असुन्दर दिखायी देती है।
नीलगाय मृग की विशेषताएं
नीलगाय (Nilgai Mrig)
नीलगाय झुण्ड में रहने वाली एक शक्तिशाली वन्य जीव है। इसे नील, नीला, रोझ, रोजरा आदि नामों से भी जाना जाता है। यह भारत की सबसे बड़ी गवय (एन्टीलोप) है और पूर्वी बंगाल, असम तथा मालाबार तट को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में पायी जाती है। नीलगाय विशुद्ध भारतीय प्रायद्वीप की वन्यजीव है और भारत व पाकिस्तान के अतिरिक्त किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिलती।
जीव वैज्ञानिकों का मत है कि नीलगाय लगभग एक करोड़ पचास लाख वर्ष प्राचीन प्राणी है तथा एक लम्बे समय से इसकी शारीरिक संरचना में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। नीलगाय को लोग प्रायः गाय परिवार का जीव समझते हैं और इसीलिये न तो इसे मारते हैं और न ही इसका मांस खाते हैं, किन्तु यह गाय की जाति का प्राणी नहीं है। गाय और नीलगाय में बहुत अन्तर होता है। उदाहरण के लिये गाय में नर और मादा दोनों के सींग होते हैं, जबकि नीलगाय में केवल नर के सींग होते हैं। नीलगाय की आंखों के नीचे की दरार में एक ग्रन्थि होती है, जबकि गाय की आंखों में ऐसी कोई ग्रन्थि नहीं होती। इसी प्रकार गाय गोबर करती है, जबकि नीलगाय हिरन और बकरी की तरह मेगनी करती है। गाय और नीलगाय में कोई समानता नहीं होती, किन्तु जीव वैज्ञानिकों का मत है कि गायों के पूर्वज नीलगाय के समान थे तथा उनमें केवल नर के सींग होते थे, मादा के नहीं।
नीलगाय (Boselaphus tragocamelus) छोटी-छोटी पहाड़ियों और पथरीले भागों, कम घने जंगलों व शुष्क मैदानों में रहना अधिक पसन्द करती है। यह घने जंगलों के भीतर कभी नहीं जाती। इसके साथ ही यह बहुत अधिक वर्षा वाले एवं बाढ़ वाले क्षेत्रों में भी नहीं मिलती। नीलगाय को अपने निवास से विशेष लगाव होता है। अतः यह इसे छोड़कर अधिक दूर कभी नहीं जाती।
नीलगाय (blue cow) का सामाजिक संगठन बड़ा अद्भुत होता है। यह प्रायः 4 से 12 तक के झुण्ड में रहती है। मैदानों और खेतों में चरते समय इसके छोटे-छोटे झुण्ड एक दूसरे से मिल जाते हैं और इस समय झुण्ड में सदस्यों की संख्या 50 तक या कभी-कभी इससे भी अधिक हो जाती है। नीलगाय के झुण्ड में सभी आयु के नर, मादाएं, बड़ेबच्चे तथा नवजात बच्चे होते हैं, किन्तु वृद्ध नर झुण्ड में नहीं रह सकता। वृद्ध नर प्रायः स्वेच्छा से झुण्ड छोड़ कर अलग हो जाते हैं, किन्तु उनके ऐसा न करने पर झुण्ड के वयस्क नर लड़कर उन्हें झुण्ड से बाहर कर देते हैं। झुण्ड से अलग किये गये वृद्ध नर एकान्त में विचरण करते हैं, लेकिन कभी-कभी कुछ वृद्ध नर आपस में मिल कर छोटा-सा झुण्ड बना लेते हैं और साथ-साथ विचरण करते हैं।
नीलगाय की शारीरिक संरचना गाय, भैंस, बकरी, घोड़े, हिरन तथा गवय सभी से अलग होती है। इसके शरीर का अगला भाग ऊपर उठा हुआ और पीछे का भाग नीचा होता है। इसकी अगली पसलियां बड़ी तथा चौड़ी और कूल्हे की हड्डी ऊंची होती है। अपनी इसी असंतुलित शारीरिक संरचना के कारण यह असुन्दर दिखायी देती है।
नीलगाय का शरीर काफी बड़ा और भारी होता है। नीलगाय की कंधों तक की ऊंचाई 130 सेन्टीमीटर से 150 सेन्टीमीटर तक, शरीर की लम्बाई 200 सेन्टीमीटर से 230 सेन्टीमीटर तक तथा वजन 220 किलोग्राम से लेकर 270 किलोग्राम तक होता है। युवावस्था में नर और मादा दोनों का रंग एक-सा होता है। किन्तु धीरे-धीरे नर का रंग गहरा स्लेटी अथवा नीलापन लिये हुए धूसर काला होने लगता है और वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते यह कालापन लिये हुए गहरा भूरा-सा हो जाता है। इसकी गहरे रंग की त्वचा पर हल्के नीले रंग की आभा होती है। सम्भवतः इसीलिये इसे नीलगाय कहा जाता है। नर नीलगाय के सिर पर आगे की ओर झुके हुए, शंक्वाकार, छोटे, गोल, नुकीले व मजबूत दो सींग होते हैं, जिनके नीचे का भाग चौड़ा और त्रिभुजाकार होता है। इसके सींगों की लम्बाई 20 सेन्टीमीटर से 25 सेन्टीमीटर तक होती है। अभी तक के सबसे बड़े सींगों का कीर्तिमान 29.8 सेन्टीमीटर है। नर की गर्दन पर छोटे-छोटे काले बालों की एक अयाल पायी जाती है तथा गले पर नीचे की ओर बालों का गुच्छा लटकता रहता है, जो दूर से बकरे की दाढ़ी की तरह मालूम पड़ता है। इसके चेहरे, ठोडी और गालों पर सफेद रंग के दो निशान होते हैं तथा कानों के भीतर का व पूंछ के नीचे का भाग भी सफेद होता है।
मादा नीलगाय का आकार नर से बहुत छोटा होता है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 90 सेन्टीमीटर तक तथा शरीर की लम्बाई 140 सेन्टीमीटर से 170 सेन्टीमीटर तक एवं वजन 140 किलाग्राम से 160 किलोग्राम तक होता है। मादा नीलगाय और इसके बच्चों का रंग पीलापन लिये हुए बादामी होता है और जीवन-भर ऐसा ही बना रहता है। मादा के सींग नहीं होते हैं। इसके गले पर बालों का गुच्छा भी नहीं होता और न ही गालों पर सफेद रंग के निशान होते हैं, किन्तु नर के समान गले पर बालों की अयाल होती है।
नर और मादा नीलगायों की आंखों के नीचे की दरार में एक ग्रन्थि होती है जो प्रायः सभी गवयो में पायी जाती है। इसकी पूंछ घुटनों तक लम्बी होती है और इसके नीचे के भाग में काले रंग के बाल होते हैं। नीलगाय के चारों पैरों के निचले भाग में सफेद रंग के गोलाकार छल्ले से होते हैं, जिनकी सहायता से इसे दूर से ही पहचाना जा सकता है।
नीलगाय सदैव अपने शत्रुओं से सावधान रहती है। इसकी श्रवण-शक्ति बहुत कमजोर होती है, किन्तु घ्राण-शक्ति और दृष्टि बहुत तेज होती है। अकेली नीलगाय खतरे का आभास होते ही सुरक्षा के लिये गुर्राती हुई अपने झुण्ड की ओर भागती है और जब झुण्ड पर संकट आता है तो पूरा का पूरा झुण्ड तेज आवाज करता हुआ खेतों की ओर भागता है। नीलगाय के झुण्ड हिंसक पशुओं के निकट होने पर खेतों में छिप जाते हैं और अपने प्राणों की रक्षा करते हैं। प्रायः नीलगाय को मारना आसान नहीं होता। यह शिकारियों की स्थिति का आभास होते ही, उनको धोखा देने के लिये खेतों में छिप जाती है या किसी पत्थर आदि की ओट में जमीन पर लेट जाती है। यह घायल होने के बाद भी कई किलोमीटर तक चली जाती है और अत्यधिक घायल होने पर भी घनी झाड़ियों की ओट में पड़ी रहती है।
नीलगाय का प्रमुख भोजन शुष्क मैदानों और पहाड़ियों पर पायी जाने वाली घास और विभिन्न प्रकार की झाड़ियां हैं। यह जमीन पर उगी हुई घास-फूस चरती है तथा वृक्षों की मुलायम कोपलें, पत्तियां और फल-फूल आदि भी तोड़-तोड़ कर खाती है। किन्तु यह अपनी असंतुलित शारीरिक संरचना के कारण सांभर के समान पिछले दोनों पैरों पर खड़ी होकर वृक्षों की कोपलें, पत्तियां व फल आदि नहीं तोड़ पाती। नीलगाय के चरने का कोई समय नहीं होता। यह सूर्योदय के पहले से चरना आरम्भ कर देती है और सूर्यास्त के बाद तक चरती रहती है, किन्तु गर्मियों के मौसम में कड़ी धूप होने के कारण किसी छायादार वृक्ष के नीचे आराम करती है। किसान नीलगाय को अपना बहुत बड़ा शत्रु मानते हैं, क्योंकि यह खेतों को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाती है। दिन के समय किसानों के द्वारा भगाये जाने पर प्रायः रात्रि के समय इसके झुण्ड के झुण्ड खेतों में पहुंच जाते हैं और पूरी की पूरी फसल बरबाद कर देते हैं। महुए के फूल, अरंडी और गन्ने की यह सबसे बड़ी शत्रु है। इनके खेतों को यह कभी नहीं छोड़ती। इनके साथ ही पोस्ता, ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, जई और गेंहूं आदि की फसलों को भी यह भारी नुकसान पहुंचाती है। नीलगाय के झुण्ड खेतों में जाकर जितना खाते उससे कई गुना बर्बाद कर देते हैं। नर नीलगाय प्रायः रात्रि के समय खेतों में पहुंच कर आपस में घन्टों लड़ते हैं, जिससे खड़ी फसलें मिट्टी में मिल कर नष्ट हो जाती हैं।
नीलगाय हमेशा अकेले या अपने झुण्ड के साथ चरती हैं। इसके झुण्ड में प्रायः एक नर, एक या दो मादाएं तथा उनके बच्चे होते हैं, किन्तु फसल, मौसम तथा स्थान के अनुसार झुण्ड के सदस्यों की संख्या बढ़ती-घटती रहती है। चरते समय इनके प्रायः अनेक छोटे-छोटे झुण्ड आपस में मिल जाते हैं। इस समय इनकी संख्या पचास-साठ तक हो सकती है। यह गाय-बैल, भेड़-बकरी आदि पालतू पशुओं अथवा हिरन आदि के साथ चरना पसन्द नहीं करती। नीलगाय मैदानों में चरते समय बड़ी सतर्क रहती है और चरने के बाद खुले भागों में आराम करते समय इससे भी अधिक सतर्क रहती है। नीलगाय के झुण्ड प्रायः आराम करते समय इस प्रकार बैठते हैं कि उनकी पीठ एक दूसरे की ओर रहे। इस स्थिति में प्रत्येक नीलगाय आराम करने के साथ ही साथ अपने सामने की दिशा से आने वाले खतरे पर दृष्टि रखती हैं। खतरे का आभास होते ही झुण्ड की सभी नीलगायें खड़ी हो जाती हैं, गर्दन उठा कर उस दिशा की ओर देखती हैं, जिधर से खतरे की आशंका होती है और इसके बाद विशेष प्रकार की आवाज निकालते हुए, पूंछ उठा कर खेतों की ओर भागती हैं। यह आवाज इतनी विचित्र होती है कि जब तक आप इसे निकालते हुए नीलगायों को न देख लें तब तक आप यह विश्वास नहीं करेंगे कि यह नीलगाय की आवाज है। चलते समय नीलगाय की पूंछ इसके पिछले पैरों के मध्य रहती है, किन्तु दौड़ते समय ऊपर की ओर उठी रहती है।
चौसिंघा और चिंकारा के समान नीलगाय को भी पानी से विशेष लगाव नहीं होता और यह लम्बे समय तक बिना पानी के रह सकती है। नीलगाय गर्मियों के मौसम में भी प्रतिदिन पानी नहीं पीती।
नीलगाय की भागने की गति बहुत तेज होती है। ऊंचे-नीचे पथरीले भागों में भी यह घोड़े के समान तेज गति से भाग सकती है, किन्तु बैड़ौल शरीर होने के कारण ऊंचे पहाड़ों पर नहीं चढ़ सकती। सम्भवतः यही कारण है कि यह शुष्क मैदानों और छोटे-छोटे पहाड़ी भागों में रहना अधिक पसन्द करती है। नीलगाय प्रायः उन सभी स्थानों पर मिल जाती है जहां शेर होता है, किन्तु शेर प्रायः नीलगाय का शिकार नहीं करता। नीलगाय के प्रमुख शत्रु हैं तेन्दुआ, भेड़िया और जंगली कुत्ते। नीलगाय अपने नुकीले सींगों के कारण शेर से तो बच जाती है, किन्तु इन तीनों से बच नहीं पाती। ये तीनों जब नीलगाय के पीछे पड़ जाते हैं तो उसे अपना आहार बना कर ही छोड़ते हैं। नीलगाय आदमी से डरती है, किन्तु जिन स्थानों पर इसका शिकार नहीं किया जाता, वहां यह आदमी से बिल्कुल नहीं डरती। ऐसे स्थानों पर सरलता से इसके पास जाकर इसके चित्र लिये जा सकते हैं।
नीलगाय का समागम और प्रजनन पूरे वर्ष-भर चलता है, किन्तु नवम्बर से जनवरी तक के महीनों में इसे जोड़े बनाते हुए देखा जा सकता है। इस काल में नर बड़ा आकर्षक दिखायी देता है। उसका नीलापन लिये हुए काला शरीर अधिक चमकीला हो जाता है तथा वह अपनी सर्वोत्तम स्थिति में आ जाता है।
नर नीलगाय चिंकारा और चौसिंघा की तरह समागम के पूर्व सीमाक्षेत्र नहीं बनाता, किन्तु कुछ जीव वैज्ञानिकों का मत है कि सदैव एक ही स्थान पर मल विसर्जन की आदत के कारण, मल विसर्जन वाला स्थान ही नीलगाय के क्षेत्र की सीमा होती है। नर नीलगाय समागम-काल में क्रोधी और झगड़ालू स्वभाव का हो जाता है तथा मादाओं की प्राप्ति के लिये दूसरे नर नीलगायों से लड़ाई करता है। मादा को पाने के लिये होने वाली लड़ाई में सर्वप्रथम दो नर एक दूसरे के सामने आते हैं और एक विशेष प्रकार की गुर्राने की आवाज निकालते हुए एक दूसरे को ललकारते हैं। इसके बाद एक दूसरे के चारों ओर गोलाई में घूमते हैं।
धीरे-धीरे यह घेरा छोटा होता जाता है और फिर अचानक दोनों में से एक नर दूसरे पर आक्रमण कर देता है। आक्रमण करते समय इसकी गर्दन तनी हुई तथा पूंछ ऊपर की ओर उठी हुई रहती है। ये गाय अथवा बैलों के समान सींग में सींग फंसा कर नहीं लड़ते, बल्कि जिर्राफ और कस्तूरी-मृग के समान एक दूसरे से गर्दन फंसा कर अपने नुकीले सींग चुभाने अथवा एक दूसरे को पीछे धकेल कर गिराने का प्रयास करते हैं। ये कभी भी न तो अपने सींगों से सीधे प्रहार करते हैं और न ही एक दूसरे को काटते हैं। दोनों नर नीलगायों के मध्य लड़ाई अधिक समय तक नहीं चलती और शीघ्र ही निर्णय हो जाता है। शक्तिशाली नर गुरतेि हुए, गर्दन और पूंछ उठा कर आक्रमण करता है तथा कमजोर नर किसी तरह आक्रमण से बचने का प्रयास करता है। इस मध्य यदि इनके निकट हिंसक जीव या शिकारी आदि खड़े हों तो ये उन पर भी ध्यान नहीं देते और लड़ते रहते हैं। कभी-कभी दोनों नर नीलगायों में शक्ति का बहुत अधिक अन्तर होने पर बिना लड़े ही फैसला हो जाता है। इसके बाद विजेता नर मादाओं के झुण्ड में सम्मिलित हो जाता है और हारा हुआ नर किसी अन्य मादा की खोज में चल देता है।
पूर्ण वयस्क नर अपना हरम बनाता है। उसके हरम में कम से कम दो या तीन मादाएं अवश्य रहती हैं। समागम के पूर्व नर और मादा झुण्ड छोड़ कर एकान्त में चले जाते हैं। कभी-कभी इनके समागम के पूर्व नया नर आ जाता है। ऐसी स्थिति में मादा पर अपना अधिकार बनाये रखने के लिये नर नीलगाय को नये नर से पुनः लड़ाई करनी पड़ती है। यह लड़ाई बड़ी घातक होती है और इसमें कभी-कभी इनके सींग भी टूट जाते हैं। मादा को नर नीलगाय की लड़ाई में कोई रुचि नहीं होती और वह पास ही खड़ी घास-फूस चरती रहती है तथा अन्त में विजेता नर के साथ समागम करती है। कभी-कभी समागम-काल में मादा नीलगाय भैंस की तरह रम्भाती है और नर को देख कर तेजी से एक दिशा में भागती है। नर उसका पीछा करता है और इसके साथ ही अपने झुण्ड की देखभाल करता है व हिंसक जीवों से झुण्ड के बच्चों एवं मादाओं की सुरक्षा करता है। झुण्ड के संरक्षक नर की इस व्यस्तता का कभी-कभी पराजित नर या नवागन्तुक नर लाभ उठा लेता है और झुण्ड की किसी मादा को अलग ले जाकर समागम कर लेता है।
नर और मादा नीलगाय समागम के पूर्व न तो एक दूसरे के साथ लम्बे समय तक रहते हैं और न ही एक दूसरे के साथ क्रीड़ा करते हैं।
समागम-काल के बाद नर अपने झुण्ड से अलग हो जाता है और अन्य नर नीलगायों के साथ मिल कर नया झुण्ड बनाता है। इस झुण्ड में नव वयस्क या अर्धवयस्क नर भी होते हैं जो अपनी मां के झुण्ड से निकल कर नये झुण्ड में आ जाते हैं। इस तरह नर नीलगायों के नये बने हुए झुण्ड में सभी आयु के नर होते हैं, किन्तु अब इनमें आपस में लड़ाई नहीं होती। कभी-कभी अर्द्धवयस्क या नर वयस्क नर आपस में एक दूसरे से लड़ते हैं, किन्तु यह वास्तविक लड़ाई न होकर लड़ाई के अभ्यास का खेल होता है, जिसे अगले समागम की तैयारी के रूप में देखा जा सकता है। नर नीलगाय हमेशा सक्रिय रहते हैं। वे कभी आपस में लड़ते हैं तो कभी एक दूसरे के चक्कर लगाते हैं, कभी एक दूसरे के पीछे भागते हैं तो कभी अपने सींगों से छोटी-छोटी झाड़ियां उखाड़ते हैं या सींगों से जमीन खोद कर आक्रमक मुद्रा का प्रदर्शन करते हैं और नववयस्क या अल्पवयस्क नवागन्तुकों पर अपना प्रभाव जमाते हैं।
समागम-काल के बाद मादाओं के झुण्ड भी आपस में मिल जाते हैं, किन्तु इनके साथ इनके बच्चे भी रहते हैं। प्रायः इस झुण्ड में सदस्यों की संख्या दस से प्रन्द्रह के मध्य होती है।
नीलगाय का गर्भकाल आठ से नौ माह के मध्य होता है। मादा नीलगाय में पूरे वर्ष-भर प्रजनन होता है, किन्तु प्रजनन का मुख्य समय अगस्त से अक्टूबर तक होता है। इस समय मैदानी भागों में भी ऊंची-ऊंची घास निकल आती है, जिससे प्रजनन सुरक्षित और सुविधाजनक हो जाता है। मादा नीलगाय प्रजनन के पूर्व अपने झुण्ड से अलग हो जाती है और बच्चे को जन्म देने के लिये किसी सुरक्षित स्थान की खोज करती है। यह प्रायः एक बच्चे को जन्म देती है, किन्तु कभी-कभी जुड़वां बच्चे होते हुए भी देखे गये हैं। जन्म के समय नवजात नर तथा मादा दोनों ही प्रकार के बच्चों का रंग एक-सा होता है। नीलगाय का बच्चा आठ घन्टे में उठ कर खड़ा हो जाता है और अपनी मां का दूध पीने लगता है। यह एक वर्ष की आयु तक दूध पीता है।
मादा नीलगायों में सामुदायिक जीवन का एक अभिनव रूप देखने को मिलता है। इनमें प्रायः बच्चे अपनी मां के दूध के साथ ही अन्य मादाओं का भी दूध पीते हैं। कभी-कभी तो अनेक बच्चों को एक ही मादा का दूध पीते हुए भी देखा गया है। इनमें बच्चों का पालन-पोषण मादाएं ही करती हैं। अतः बच्चे पूरे समय मादाओं के झुण्ड के साथ ही रहते हैं। मादा नीलगाय 18 से 24 माह के मध्य वयस्क और प्रजनन के योग्य हो जाती है, जबकि नर लगभग ढाई वर्ष में पूर्ण वयस्क बनता है।
मादा नीलगाय की गर्भधारण करने की क्षमता बहुत अधिक होती है और यह प्रायः बच्चे को दूध पिलाते-पिलाते ही गर्भवती हो जाती है। इसकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह प्रायः एक ही स्थान पर बार-बार बच्चों को जन्म देती है, जिससे एक क्षेत्र विशेष में इनकी संख्या में तेजी से वृद्धि होती है और कभी-कभी इनकी संख्या इतनी बढ़ जाती है कि आस-पास के ग्रामीणों के लिये एक विकट समस्या बन जाती है।
नीलगाय के झुण्ड में वृद्ध नर की स्थिति बड़ी दयनीय होती है। उसका झुण्ड में कोई महत्त्व नहीं होता। वह अपने झुण्ड में एक उपेक्षित सदस्य के रूप में रहता है। प्रायः वृद्ध नर इस उपेक्षा से दुखी होकर अपना झुण्ड छोड़ देते हैं और कुछ वृद्ध नर एक साथ मिल कर रहने लगते हैं।
नीलगाय बहुत सीधी होती है। इसे सरलता से पालतू बनाया जा सकता है एवं चिड़ियाघरों में रखा जा सकता है। इसकी वर्तमान स्थिति चिंकारा और चौसिंघा से तो अच्छी है, किन्तु खेती और औद्योगिक विकास के लिये की जाने वाली जंगलों की अंधाधुंध कटाई के कारण इसकी संख्या में भी कमी आ रही है।
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