हंगुल हिरण : Kashmir Stag

Dr. Mulla Adam Ali
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Hangul deer and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Kashmir Stag deer.

Kashmir Stag : Indian Wildlife

kashmir stag deer

Wildlife of India : Before India's independence in 1940, the number of Hangul was more than three thousand, which decreased to only 170 by 1970. Seeing the decreasing number of Hangul, the International Union of Wildlife Conservation (IUCN) first paid attention to this and included Hangul in the category of extremely rare wild animals and appealed for its protection.

Hangul Deer

हांगुल हिरण

भारत के उत्तरी भाग के पर्वतीय जंगलों में हिरन परिवार के चार वन्य जीव पाये जाते हैं। ये हैं-सांभर, कांकड़, कस्तूरी मृग और हांगुल । इनमें से सांभर और कांकड़ अधिक ऊंचाई वाले भागों में नहीं रह सकते। ये केवल ढाई हजार मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थानों पर ही देखने को मिलते हैं। शेष दो हिरन कस्तूरी मृग और हांगुल अधिक ऊंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों में रहना पसन्द करते हैं।

हांगुल एक भारतीय हिरन है। इसे कश्मीरी स्टैग तथा कश्मीरी बाहरसिंघा भी कहते हैं, किन्तु यह बाहरसिंघा से पूरी तरह भिन्न है। हांगुल हिमालय पर्वत के 2400 मीटर से लेकर 4000 मीटर तक की ऊंचाई वाले भागों में पाया जाता है। किसी समय यह पूरे कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और हिमालय के पर्वतीय वनों में फैला हुआ था, किन्तु अब केवल कश्मीर के डाचीगाम और हिमाचल प्रदेश के उत्तरी चम्बा में ही सीमित रह गया है।

हांगुल प्रायः अकेले अथवा दो से लेकर अठारह तक के झुण्ड में नदियों के समीपवर्ती घने जंगलों अथवा चीड़ के सघन वनों में रहता है। इसे एक ही जंगल में रहना बिल्कुल पसन्द नहीं है। यह एक शर्मीला हिरन है। अतः इसे स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने के लिये बहुत बड़ा क्षेत्र चाहिये। हांगुल भोजन की तलाश में एक जंगल से दूसरे जंगल और फिर इसी तरह अन्य जंगलों में घूमता रहता है। यह गर्मियों के दिनों में हिमालय पर्वत के ऊंचाई वाले भागों में चला जाता है और सर्दियों में अधिक ठण्डक के कारण पुनः नीचे के घाटी वाले क्षेत्रों में उतर आता है।

हांगुल एक विशुद्ध भारतीय हिरन है, किन्तु कुछ जीव वैज्ञानिक इसे योरोप के लाल हिरन (Red Deer) की एक उपजाति मानते हैं। योरोप का लाल हिरन बड़ी जाति का एक हिरन है। इसकी अनेक उपजातियां हैं, जो पूरे योरोप, उत्तरी हिमालय क्षेत्र, उत्तरी अफ्रीका देखने को मिल जाते हैं। हांगुल के मृगश्रृंगों की शाखाओं का कीर्तिमान 16 है, किन्तु सोलह शाखाओं वाले मृगश्रृंगों का हांगुल अभी तक केवल एक ही देखा गया है। नर हांगुल के मृगश्रृंग मार्च-अप्रैल तक गिर जाते हैं। इसके बाद यह ऊंचे पर्वतीय वनों की ओर चल देता है। इसके मृगशृंग अगस्त में पुनः निकलना आरम्भ होते हैं और अक्टूबर तक पूरे निकल आते हैं।

हांगुल दिवाचर है अर्थात् दिन के समय चरता है। यह प्रातःकाल सूर्योदय होते ही भोजन की तलाश में निकल पड़ता है और सूर्यास्त के बाद अंधेरा होने तक चरता है तथा रात्रि के समय किसी सुरक्षित स्थान पर विश्राम करता है। हांगुल को तेज धूप या गर्मी सहन नहीं होती। अतः गर्मी के दिनों में तेज धूप होने पर यह किसी छायादार वृक्ष के नीचे आराम करता है और धूप की तेजी समाप्त होने पर पुनः चरने के लिये निकल पड़ता है।

हांगुल सदैव झुण्ड में रहने वाला हिरन है। यह हमेशा झुण्ड में ही चरता है, किन्तु इसके झुण्ड में सदस्यों की संख्या मौसम पर निर्भर होती है। हांगुल का प्रमुख भोजन घास-फूस, पत्तियां तथा पर्वतीय वनों में उगने वाली विभिन्न प्रकार की झाड़ियां आदि हैं। यह कभी भी एक जंगल में रह कर नहीं चरता बल्कि भोजन की तलाश में एक जंगल से दूसरे जंगल और इसी प्रकार तीसरे-चौथे जंगल में घूमता फिरता है।

हांगुल के झुण्ड में प्रायः दो से लेकर अठारह तक सदस्य रहते हैं, किन्तु भोजन की पर्याप्त मात्रा होने पर झुण्ड में सदस्यों की संख्या अधिक भी हो सकती है। सन् 1980 में कश्मीर के डाचीगाम अभयारण्य में सर्दियों के मौसम में हांगुल का एक ऐसा झुण्ड देखने को मिला था, जिसमें 31 हांगुल थे। हांगुल के झुण्ड में प्रायः एक या दो नर, अनेक मादाएं तथा इनके बच्चे होते हैं। कभी-कभी यह चरते-चरते अपने झुण्ड से अलग हो जाता है और काफी दूर निकल जाता है, किन्तु अन्धेरा होने से पहले अपने साथियों से आकर मिल जाता है। मार्च-अप्रैल के महीनों में तेज गर्मी होने पर भोजन की कमी के कारण हांगुल के झुण्ड टूट जाते हैं। इस समय नर प्रायः अकेला रहता है और मादाओं व बच्चों के भी दो-तीन से अधिक संख्या वाले झुण्ड देखने को नहीं मिलते।

हांगुल की दृष्टि सामान्य होती है, किन्तु घ्राण-शक्ति और श्रवण शक्ति बड़ी तेज होती है। इसके चार प्रमुख शत्रु हैं-हिमालय का भूरा भालू, हिमालय का काला भालू, हिम तेंदुआ तथा तेंदुआ, इनमें तेंदुआ सबसे अधिक खतरनाक होता है। इसकी गंध पाते ही हांगुल सतर्क हो जाता है और मुंह से एक विचित्र प्रकार की आवाज निकाल कर अपने साथियों को भी सावधान कर देता है।

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Hangul Hiran : Kashmir Stag

हांगुल का समागम-काल सितम्बर के अंतिम सप्ताह से आरम्भहोता है और नवम्बर के पहले सप्ताह तक चलता है। यह वही समय होता है जब नर हांगुल के मृगश्रृंग पूर्ण विकसित रूप में होते हैं। समागम काल में नर और मादा के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ जाता है। नर हांगुल अन्य नरों से अलग हो जाता है तथा तेंदुए की दहाड़ जैसी आवाजें निकालता है। इसके साथ ही मादाएं भी अपने छोटे-छोटे झुण्ड बना लेती हैं, जिनमें बच्चे भी रहते हैं।

नर हांगुल समागम-काल में सांभर, कांकड़, कस्तूरी मृग आदि पर्वतीय हिरनों के समान कोई सीमाक्षेत्र नहीं बनाता और न ही मादा हांगुल अपना सीमाक्षेत्र निर्धारित करती है, किन्तु सांभर के समान नर हांगुल अपना हरम बनाता है, जिसमें 3-4 मादाएं होती हैं। यह प्रायः समागम के पूर्व से ही अर्थात् सितम्बर के अंत या अक्टूबर के आरम्भ से ही मादाओं के साथ रहने लगता है और समागम-काल के अन्त तक साथ रहता है। समागम-काल में मादाओं की प्राप्ति के लिये नर हांगुल आपस में नहीं लड़ते, क्योंकि अगस्त के अंत तक प्रायः शारीरिक शक्ति के आधार पर एक प्रकार का सामाजिक स्तरण स्थापित हो जाता है, अर्थात् नर हांगुल अपने से अधिक शक्तिशाली नर की अधीनता स्वीकार कर लेते हैं। इसका एक अन्य कारण नर और मादा के अनुपात में मादाओं की संख्या का बहुत अधिक होना भी है। एक शोध के अनुसार सन् 1980 में डाचीगाम अभयारण्य में हांगुल नर और मादा की संख्या का अनुपात 5 : 19 का था। अर्थात् 19 मादाओं के मध्य 5 नर थे।

हांगुल के सम्बन्ध में जीव वैज्ञानिकों का मत है कि जब इनकी संख्या बहुत अधिक थी, तब ये मादाओं की प्राप्ति के लिये आपस में लड़ते थे। इनमें मादा की प्राप्ति के समय मादा के समीपवर्ती नर को दूसरा नर चुनौती देता था। इसके बाद दोनों में लड़ाई होती थी तथा अन्त में विजेता नर को मादा प्राप्त हो जाती थी और हारा हुआ नर दूसरी मादा की खोज में चल देता था। अधिक शक्तिशाली नर हांगुल बड़े हरम बनाता था, जिसमें मादाओं की संख्या 5-6 तक होती थी। इसे स्वामी नर (Master Stag) कहते थे। यह सांभर के समान अपने हरम की सभी मादाओं की सुरक्षा करता था तथा उनके साथ समागम करता था।

हांगुल का समागम-काल पतझड़ के साथ ही समाप्त हो जाता है और समागम-काल के बाद नर अपना हरम तोड़ देता है तथा एकान्त में विचरण करता है या अन्य नर हांगुलों के साथ मिल कर झुण्ड बनाता है। इस समय इसके झुण्ड में केवल नर रहते हैं तथा इनकी संख्या 2 से 9 तक हो सकती है। अब ये अच्छे चारागाहों की खोज में ऊंचाई वाले क्षेत्रों की ओर चल पड़ते हैं और अधिक ठण्डक होने पर पुनः नीचे उतर आते हैं। नर हांगुलों के समान मादाएं भी अपना अलग झुण्ड बना लेती हैं, जिसमें इनके बच्चे भी रहते हैं। मादा हांगुल के झुण्ड नर के झुण्ड से बड़े होते हैं तथा इनके झुण्ड में मादाओं और बच्चों की संख्या 12 से 16 तक होती है।

मादा हांगुल न तो समागम-काल में सीमाक्षेत्र बनाती है और न ही बच्चे को जन्म देने के लिये किसी सीमाक्षेत्र का निर्धारण करती है। इसका गर्भकाल लगभग 6 माह से 7 माह के मध्य होता है, अर्थात् यह अप्रैल-मई के महीनों में एक बच्चे को जन्म देती है, किन्तु जुड़वा बच्चे होना भी अपवाद नहीं है। यह बच्चे देने के लिये सदैव नदियों के किनारे की घनी झाड़ियों वाले जंगलों का चुनाव करती है और प्रायः एकान्त में बच्चे को जन्म देती है, किन्तु कभी-कभी एक ही स्थान पर दो मादाओं को बच्चे देते हुए भी देखा गया है। जन्म के समय हांगुल के बच्चों के शरीर पर धारियां होती हैं, जो बड़े होने पर स्वतः समाप्त हो जाती हैं। सभी भारतीय हिरनों के समान बच्चों के पालन-पोषण का कार्य मादा हांगुल ही करती है तथा बच्चे पूरे समय मां के साथ ही रहते हैं। ये लगभग दो से ढाई वर्ष में वयस्क हो जाते हैं। हांगुल का जीवन-काल 12 से 15 वर्ष तक होता है, किन्तु शिकार के कारण इस आयु तक बहुत ही कम हांगुल पहुंच पाते हैं।

भारत की बढ़ती हुई आबादी, घटते हुए वन तथा शिकार आदि के कारण हांगुल विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है। हांगुल हिरनों का प्रमुख स्थान कश्मीर का डाचीगाम वन्य क्षेत्र है। डाचीगाम वन्य क्षेत्र 141 वर्ग किलामीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसके आसपास शंकर गढ़, ओवेरा, सिंधु घाटी तथा लिवर के वन्य क्षेत्र हैं। भारत सरकार हांगुल हिरनों की घटती हुए संख्या से चिंतित थी। अतः इन्हें बचाने के लिये सरकार ने सन् 1951 में डाचीगाम वन्यक्षेत्र को अभयारण्य घोषित कर दिया और हांगुल के शिकार पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया, किन्तु इससे हांगुल की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया।

भारत की आजादी के पूर्व सन् 1940 में हांगुल की जो संख्या तीन हजार से अधिक थी यह सन् 1970 तक घट कर मात्र 170 रह गयी। हांगुल की घटती हुई संख्या को देखते हुए वन्य प्राणियों के अंतर्राष्ट्रीय संघ (आई. यू. सी. एन.) ने सर्व प्रथम इस ओर ध्यान दिया तथा हांगुल को अत्यन्त दुर्लभ वन्य प्राणी की श्रेणी में सम्मिलित करते हुए इसके संरक्षण की अपील की।

अंतर्राष्ट्रीय संघ की अपील पर विश्व वन्य जीव संगठन (डब्ल्यू. डब्ल्यू. एफ.) ने भी इस ओर ध्यान दिया और सन् 1970 में इन दोनों संगठनों ने मिल कर जम्मू और कश्मीर सरकार के सहयोग से डॉ. फ्रेडकुर्त के निर्देशन में हांगुल को बचाने के लिये भारत में 'हांगुल परियोजना' आरम्भ की। इस परियोजना के शीघ्र ही अच्छे परिणाम सामने आये और सन् 1980 में हांगुल की संख्या बढ़ कर 347 हो गयी। हांगुल की संख्या अभी भी बढ़ रही है, किन्तु वनों की निरन्तर कटाई एवं वन्य जीवों का शिकार दो ऐसे प्रमुख कारण हैं, जिनसे हांगुल के संरक्षण में आशातीत सफलता नहीं मिल पा रही है।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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