The Musk Deer and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Kasturi Mrig.
Musk Deer : Indian Wildlife
Wildlife of India : कस्तूरी-मृग शर्मीला और एकान्त में रहने वाला हिरन है। यह पर्वतीय क्षेत्रों में काफी ऊंचाई पर पाये जाने वाले भोज वृक्षों के जंगलों में अथवा ऊंचे वृक्षों से ढंकी पहाड़ी चट्टानों के बीच में अपना निवास बनाता है। सर्दियों में यह पहाड़ से नीचे उतर आता है, किन्तु मैदानी भागों में कभी भी देखने को नहीं मिलता। कस्तूरी-मृग समागम-काल को छोड़कर प्रायः अकेला ही रहता है और अपनी जाति के अथवा अन्य जातियों के हिरनों के साथ मिल कर रहना बिल्कुल पसन्द नहीं करता।
Kasturi Mrig
कस्तूरी मृग
कस्तूरीमृग एक अत्यन्त प्राचीन वन्यजीव है। इसे कस्तूरा, मुश्क आदि नामों से भी जाना जाता है। कस्तूरी मृग हिरन और एन्टीलोप के बीच का प्राणी है। इसके न तो सर पर मृगशृंग (एन्टलर्स) होते हैं और न चेहरे पर ग्रन्थियां होती हैं। अतः कुछ जीव वैज्ञानिक इसे एक अविकसित हिरन मानते हैं। विख्यात रूसी वैज्ञानिक फ्लेरोव ने कस्तूरीमृग को एक विशिष्ट परिवार-मोस्कीडाइ का सदस्य माना है, क्योंकि इसके पित्ताशय होता है, मादा के दो स्तन होते हैं एवं नर की नाभि के पास एक विशिष्ट प्रकार के सुगन्धित द्रव वाली ग्रन्थि होती है। ये तीनों विशेषताएं हिरनों में नहीं पायी जातीं।
कस्तूरी मृग दक्षिण तथा मध्य एशिया में हिमालय पर्वत पर 2400 मीटर से लेकर 4000 मीटर तक की ऊंचाई वाले भागों में देखने को मिलता है। भारत में यह कश्मीर, सिक्किम, अरूणांचल प्रदेश, असम तथा उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में पाया जाता है। भारत के साथ ही साथ यह रूस, चीन, मंगोलिया, बर्मा, भूटान, तिब्बत, नेपाल तथा कोरिया आदि में भी देखने को मिलता है।
कस्तूरी-मृग शर्मीला और एकान्त में रहने वाला हिरन है। यह पर्वतीय क्षेत्रों में काफी ऊंचाई पर पाये जाने वाले भोज वृक्षों के जंगलों में अथवा ऊंचे वृक्षों से ढंकी पहाड़ी चट्टानों के बीच में अपना निवास बनाता है। सर्दियों में यह पहाड़ से नीचे उतर आता है, किन्तु मैदानी भागों में कभी भी देखने को नहीं मिलता। कस्तूरी-मृग समागम-काल को छोड़कर प्रायः अकेला ही रहता है और अपनी जाति के अथवा अन्य जातियों के हिरनों के साथ मिल कर रहना बिल्कुल पसन्द नहीं करता।
कस्तूरी-मृग एक छोटा हिरन है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 40 सेन्टीमीटर से लेकर 55 सेन्टीमीटर तक तथा वजन 9 किलोग्राम से 13 किलोग्राम तक होता है। इसका अगला भाग छोटा एवं कमजोर तथा पिछला भाग अधिक मजबूत तथा तुलनात्मक रूप से भारी होता है। अतः पीछे से यह अधिक ऊंचा दिखायी देता है। कस्तूरी मृग का रंग हल्के बादामी भूरे से लेकर हल्की लाली लिये हुए सुनहरा तक होता है और पीठ पर हल्के तथा गहरे भूरे रंग के धब्बे होते हैं। इसके पूरे शरीर पर छोटे-छोटे कड़े और घने बाल होते हैं एवं पूंछ बहुत छोटी होती है। नर कस्तूरी-मृग की पूंछ बाल रहित होती है, जबकि मादा की पूंछ पर घने बाल होते हैं। कस्तूरी-मृग के खुर लम्बे और नुकीले होते हैं। इसकी पिछली टांगें अगली टांगों से लम्बी, मोटी और मजबूत होती हैं तथा चलते और दौड़ते समय मुड़ी हुई-सी दिखायी पड़ती हैं। इनकी संरचना इस प्रकार की होती है कि यह बर्फीली चट्टानों, खाइयों, फिसलन भरी ढलानों आदि पर सरलता से भाग सकता है। यह बड़ी आसानी से सीधी चढ़ाई चढ़ जाता है और उतर आता है।
कस्तूरी-मृग का सर इसके शरीर की तुलना में छोटा होता है। इसका मुंह आगे की ओर निकला हुआ होता है एवं कान बड़े और लम्बे होते हैं। कस्तूरी-मृग के मृगशृंग नहीं होते, किन्तु इनकी कमी को इसके हाथी के समान बाहर निकले हुए दो कैनाइन दांत पूरी करते हैं। ये दांत ऊपरी जबड़े के नीचे होते हैं तथा नर और मादा दोनों में पाये जाते हैं। मादा के दांत छोटे होते हैं, जबकि नर के दांतों की लम्बाई 10 सेन्टीमीटर तक हो सकती है। नर कस्तूरी मृग के कैनाइन दांत लम्बे, पतले, नुकीले और बाहर की ओर निकले हुए होते हैं। इनका उपयोग यह मादा को प्राप्त करने के लिये, आपस में लड़ते समय एवं सुरक्षा के लिये करता है। इसके कैनाइन दांतों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इनका स्थान परिवर्तनशील होता है, अर्थात् कस्तूरी मृग अपने जबड़े की मांसपेशियों की सहायता से अपना मुंह खोल कर इनका स्थान बदल सकता है।
कस्तूरी-मृग के प्रजनन अंगों के पास घने और लम्बे बाल होते हैं, जिससे इसके प्रजनन अंग ढंके रहते हैं। नर और मादा दोनों की पूंछ के नीचे एक ग्रन्थि होती है, जिससे एक गंधयुक्त द्रव पदार्थ निकलता है, जिसका उपयोग ये अपनी क्षेत्र सीमा बनाने के लिये करते हैं।
कस्तूरी-मृग की तीन जातियां पायी जाती हैं 1. साइबेरिया का कस्तूरी-मृग 2. पहाड़ी कस्तूरी मृग 3. बौना कस्तूरी मृग। इन तीनों के आकार एवं व्यवहार में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है।
साइबेरिया का कस्तूरी मृग सबसे बड़ा और भारी होता है। इसकी कंधे तक की ऊंचाई 55 सेन्टीमीटर तक एवं वजन 13 किलोग्राम तथा शरीर का रंग भूरा होता है। साइबेरिया के कस्तूरी मृग के शरीर पर लम्बे और घने बाल होते हैं। इसके पिछले भाग के बालों की लम्बाई 10 सेन्टीमीटर तक हो सकती है। साइबेरिया का कस्तूरी मृग 3500 मीटर से 4500 मीटर तक की ऊंचाई वाले और इसके आसपास के पर्वतीय जंगलों मे पाया जाता है। सर्दियों में यह पर्वतीय ढलान के ऐसे भाग में आ जाता है, जहां बर्फ कम एकत्रित होती है। यह अपने मल-मूत्र एवं गंधयुक्त पदार्थ से लगभग दो वर्ग किलोमीटर की सीमा निर्धारित करना है। प्रायः नर का क्षेत्र मादा के क्षेत्र से लगा हुआ होता है, किन्तु मादा के क्षेत्र से अधिक ऊंचाई वाले स्थान पर होता है। नर और मादा प्रतिदिन अनेक बार अपने क्षेत्र की सीमा पर आते हैं और वहां पड़ी हुई वृक्षों की टहनियां, छोटे-छोटे पौधों व चट्टानों आदि पर कई बार मल-मूत्र एवं गंधयुक्त पदार्थ विसर्जित कर इसे निश्चित करते हैं। इस सीमाक्षेत्र के मध्य भाग में एक ऊंचा उठा हुआ पहाड़ी भाग अवश्य होता है, जहां से यह शत्रुओं को भली भांति देख सकता है और अपनी एवं क्षेत्र की सुरक्षा कर सकता है। कस्तूरी-मृग प्रायः अपने सीमाक्षेत्र की रक्षा के लिये अपनी ही जाति के अन्य कस्तूरी मृगों से लड़ते हुए भी देखा गया है। गर्मियों के दिनों में यह नदियों की घाटियों में उन स्थानों पर आ जाता है, जहां अच्छी घास हो और फैले हुए वृक्ष हों। यह दलदल वाले भागों से हमेशा दूर रहता है। सर्दियां आरम्भ होते ही साइबेरिया का कस्तूरी मृग पुनः पर्वतीय क्षेत्रों में लौट आता है और नया सीमाक्षेत्र निर्धारित करता है।
पहाड़ी कस्तूरी-मृग मध्यम आकार का होता है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 45 सेन्टीमीटर से 50 सेन्टीमीटर तक एवं शरीर का रंग हल्का भूरा होता है। इसका मुंह नुकीला एवं टांगें छोटी और मजबूत होती हैं। पहाड़ी कस्तूरी-मृग नेपाल और तिब्बत में हिमालय पर्वत के 3000 मीटर से 4000 मीटर तक की ऊंचाई वाले भागों में पाया जाता है। यह साइबेरिया के कस्तूरी-मृग के समान अपनी क्षेत्रसीमा निर्धारित करता है तथा इसकी सुरक्षा के लिये अपनी जाति के अन्य हिरनों से लड़ाई करता है, किन्तु यह अपना क्षेत्र बदलता नहीं है, बल्कि जीवन-भर एक ही क्षेत्र में रहता है।
बौना कस्तूरी-भूग सबसे छोटा होता है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 40 सेन्टीमीटर से लेकर 45 सेन्टीमीटर तक एवं शरीर का रंग हल्का भूरा पन लिये सुनहरा-सा होता है। इसका मुंह छोटा और आगे की ओर निकला हुआ होता है एवं शरीर का पिछला भाग अगले भाग की तुलना में भारी और मजबूत होता है। बौना कस्तूरी मृग पहाड़ी कस्तूरी-भूम के समान पर्वतीय जंगलों में 3000 मीटर से 4000 मीटर तक की ऊंचाई वाले भागों में पाया जाता है। कुछ जीव वैज्ञानिक पहाड़ी कस्तूरीमृग और बौने कस्तूरीमृग को अलग-अलग जातियों का नहीं मानते, बल्कि एक ही जाति की दो उपजातियां मानते हैं।
कस्तूरी-मृग निशाचर है। यह दिन के समय घने जंगलों में ढंकी हुई पहाड़ी चट्टानों की दरारों में आराम करता है और रात्रि में भोजन की खोज में निकलता है। इसका प्रमुख भोजन विभिन्न प्रकार के फल-फूल तथा पत्तियां, छोटी-छोटी पत्तियों वाले पौधे, भोजपत्र की झाड़ियां, विभिन्न प्रकार की जंगली वनस्पतियां तथा पहाड़ों पर पायी जाने वाली काई आदि हैं। सर्दियों में यह पतली बर्फ की परत वाले स्थानों की खोज करता है और बर्फ की पतों को उखाड़ कर या तोड़ कर उसके नीचे की पत्तियां, फल-फूल, घास आदि खाकर सर्दियां बिताता है। यदि बर्फ की पर्त मोटी होती है तो केवल पहाड़ी काई खाकर यह अपनी भूख मिटाता है। यह कभी-कभी झुकी हुई डालियों वाले वृक्षों पर भी चढ़ जाता है और पत्तियां आदि खाता है। कस्तूरी-मृग अन्य बहुत से वन्यजीवों के समान नमकीन मिट्टी चाटने का शौकीन होता है।
कस्तूरी-मृग एक अच्छा तैराक है, किन्तु यह पानी से दूर ही रहना पसन्द करता है। इसके शरीर, पैरों और खुरों की संरचना इस प्रकार की होती है कि यह बर्फ पर भी सरलता से दौड़ सकता है।
कस्तूरी-मृग के प्रमुख शत्रु हैं- लोमड़ी, जंगली कुत्ता, भेड़िया, तेन्दुआ, हिम तेंदुआ, भालू, वन बिलाव, बुल्वेराइन और पीले गले वाले नेवले। इनके कारण यह दिन के समय भी चैन से सो नहीं पाता और खतरे का आभास होते ही लम्बी-लम्बी छलांगें लगाता हुआ भाग खड़ा होता है। यह शत्रु के निकट होने पर पहले तो तेजी से भागता है, किन्तु लगभग सौ मीटर भागने के बाद शत्रु की स्थिति मालूम करने के लिये रुक जाता है और पीछे मुड़ कर देखता है। अपनी इसी आदत के कारण यह प्रायः अपने शत्रु का शिकार बन जाता है। कस्तूरी मृग शत्रु का सामना हो जाने पर अपने तेज, नुकीले कैनाइन दांतों से उसका मुकाबला करता है, किन्तु छोटा और कमजोर प्राणी होने के कारण प्रायः मारा जाता है। हिंसक वन्य जीवों के साथ ही बाज तथा चील आदि पक्षी भी इसके शत्रु हैं और अवसर मिलते ही इनके बच्चों को मार कर खा जाते हैं। गर्मियों के मौसम में मक्खियां एवं विभिन्न प्रकार के कीड़े मकोड़े इसके शरीर पर घने बालों के भीतर अन्डे देकर इसे परेशान करते हैं। इन कीड़े-मकोड़ों के लारवे इसके शरीर पर ही पलते हैं।
पहाड़ी तथा बौने कस्तूरी मृग को अपने निवास स्थान से बहुत प्यार होता है। ये कड़ाकेदार सर्दी में भी अपना निवास नहीं छोड़ते। दोनों ही जातियों के कस्तूरी-मृग आने-जाने के लिये एक निश्चित मार्ग का उपयोग करते हैं। ये भोजन एवं मल-मूत्र विसर्जन आदि के लिये जिस मार्ग से जाते हैं, उसी मार्ग से वापस लौटते हैं। अपनी इस आदत के कारण भी ये सरलता से पकड़े जाते हैं। भारत की मोघिया तथा कुछ अन्य जनजातियों के अनुभवी शिकारी पहले इनका रास्ता मालूम कर लेते हैं और फिर जाल लगा कर सरलता से इन्हें पकड़ लेते हैं।
कस्तूरी-मृग का समागम बड़ा रोचक और आकर्षक होता है। यह आपको पहले ही बताया जा चुका है कि कस्तूरी मृग सदैव एक सीमाक्षेत्र बना कर रहता है। इनमें सीमाक्षेत्र बनाते समय आपस में हिंसक युद्ध होता है, जिसमें ये अपने कैनाइन दांतों का उपयोग करते हैं। इन दांतों के निशान अधिकांश कस्तूरी मृगों की गर्दनों पर देखे जा सकते हैं। समागम के लिये नर कस्तूरी मृग के पास सीमा क्षेत्र का होना आवश्यक है।
कस्तूरी-मृग का समागम-काल दिसम्बर से फरवरी तक चलता है। समागम-काल में मादा को आकर्षित करने के लिये नर कस्तूरी मृग अपने शरीर से कस्तूरी की-सी तेज गंध निकालता है। इस काल में नर और मादा की जांघों के ऊपरी भाग में स्थित ग्रन्थियों से एक विशेष प्रकार का गन्धयुक्त द्रव पदार्थ भी निकलता है, जिसे ये क्षेत्र की सीमा पर स्थित चट्टानों, झाड़ियों एवं छोटे-छोटे वृक्षों की टहनियों पर छोड़ कर अपनी सीमा पक्की करते हैं। इसी गन्ध के सहारे नर कस्तूरी मृग मादा की सीमा में प्रवेश करता है और उसके निकट पहुंचता है। यदि एक मादा के पास दो नर कस्तूरी मृग पहुंच जायें तो उनमें आपस में लड़ाई होती है। यह लड़ाई बड़ी भयानक होती है तथा इसमें कभी-कभी एक कस्तूरी मृग की मृत्यु हो जाती है।
समागम के पूर्व मादा कस्तूरी मृग अपने क्षेत्र में ही तेजी से भागती है और नर कस्तूरी-मृग उसका पीछा करता है। कभी-कभी भागने और पीछा करने का खेल 24 घंटे तक चलता है। इस खेल को 'रन' कहते हैं। नर कस्तूरी-मृग मादा का उस समय तक पीछा करता है, जब तक कि वह पूरी तरह थक नहीं जाती और पत्थरों एवं झाड़ियों में छिपने का प्रयास नहीं करने लगती। इसी मध्य नर कस्तूरी मृग मादा की क्षेत्र सीमा पर अपने गन्धयुक्त पदार्थ अथवा मल-मूत्र द्वारा निशान लगा देता है। यह अन्य कस्तूरी-मृगों के लिये निषिद्ध सीमा क्षेत्र होने का संकेत होता है। कस्तूरी-मृगों का समागम सदैव मादा के सीमाक्षेत्र में ही होता है।
मादा कस्तूरीमृग का गर्भकाल 5 माह से 6 माह के मध्य होता है तथा मई-जून में यह एक बच्चे को जन्म देती है। यहां यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि साइबेरिया की मादा कस्तूरी-मृग प्रायः जुड़वां बच्चों को जन्म देती है। कस्तूरी मृग के नवजात बच्चे के शरीर पर लाल और सफेद रंग की पट्टियां होती हैं, जो छः महीने में समाप्त हो जाती हैं तथा त्वचा पर हल्के भूरे रंग के धब्बे निकल आते हैं। ये धब्बे तीन वर्ष की आयु तक बने रहते हैं। बच्चों के पालन-पोषण का कार्य मादा करती है। वह अपने बच्चों को चट्टानों अथवा झाड़ियों में छिपा कर रखती है और खतरे का आभास होने पर उनका स्थान बदल देती है। कुछ बड़े हो जाने पर बच्चे मादा के साथ घूमने निकलते हैं और थोड़ी-सी भी आहट होने पर सुरक्षा के लिये मादा के निकट आ जाते हैं। कस्तूरी-मृग के बच्चे 16 माह से 18 माह के मध्य वयस्क हो जाते हैं अर्थात् प्रजनन के योग्य हो जाते हैं।
नर कस्तूरी मृग की नाभि और प्रजनन अंगों के मध्य बड़े नीबू के आकार की एक ग्रन्थि होती है, जिसमें कस्तूरी रहती है। इसे नाभा या मृगनाभि कहते हैं। इसी मृगनाभि के कारण कस्तूरी-मृग का इतना अधिक शिकार किया गया है कि यह विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया है। कस्तूरी-मृग की मृगनाभि का आकार उसकी आयु के अनुसार बढ़ता है। एक वयस्क कस्तूरी-मृग की मृगनाभि लगभग तीन सेन्टीमीटर तक मोटी और पांच से आठ सेन्टीमीटर तक लम्बी और गोलाई लिये हुए होती है। इस पर मुलायम और रेशेदार बाल होते हैं तथा एक सिरे पर छोटा-सा छेद होता है। इसे काट कर सुखाने पर इसका भार 20 ग्राम से 50 ग्राम तक रह जाता है। मृगनाभि में कत्थई रंग का गाढ़ा द्रव पदार्थ भरा रहता है। आरम्भ में यह तेज तीखा और मूत्र की तरह दुर्गन्धयुक्त होता है, किन्तु सूखने के बाद इसमें सुगन्ध उत्पन्न हो जाती है। प्रायः एक मृगनाभि से पांच ग्राम से ले कर पन्द्रह ग्राम तक कस्तूरी प्राप्त होती है। कस्तूरी एक मूल्यवान पदार्थ है। बौने कस्तूरी मृग से प्राप्त कस्तूरी सर्वाधिक महंगी होती है। कस्तूरी का उपयोग विभिन्न प्रकार के कीमती इत्र, साबुन और शक्तिवर्धक दवायें बनाने में किया जाता है। चीन में इससे शक्तिवर्धक तथा दर्दनाशक दवाएं तैयार की जाती हैं। यहां के लोग इसे तम्बाकू में मिला कर सूंघते हैं। चीन तथा रूस के लोग कस्तूरी मृग का मांस नहीं खाते, किन्तु तिब्बती लोग इसका मांस बड़े स्वाद से खाते हैं। ये इसकी खाल से चमड़ा भी तैयार करते हैं।
कस्तूरी-मृग इस समय विलुप्ति के कगार पर है। इनका एक लम्बे समय से बड़ी संख्या में शिकार किया जा रहा है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक एशिया के विभिन्न देशों रूस, चीन, भारत, बर्मा आदि से 1500 किलोग्राम कस्तूरी प्रतिवर्ष योरोप तथा खाड़ी के देशों को निर्यात की जाती थी, अर्थात् पचास हजार से पचहत्तर हजार तक कस्तूरी मृग प्रति वर्ष मारे गये। एक समय था जब उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, चमोली आदि क्षेत्रों में काफी संख्या में कस्तूरी-मृग पाये जाते थे, किन्तु अब उत्तरकाशी और चमोली को छोड़ कर शेष सभी भागों से ये समाप्त हो गये हैं।
कस्तूरी-मृग की घटती हुई संख्या को देखते हुए भारत सरकार ने भी सन् 1972 में केदारनाथ वन मण्डल के अन्तर्गत 9672 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में कस्तूरी-मृग अभयारण्य बनाया है तथा कस्तूरी मृग को 'रेड डाटा बुक' में संकटग्रस्त प्राणी के रूप में शामिल किया है। इसके साथ ही कश्मीर, दार्जिलिंग, अल्मोड़ा एवं नंदा देवी आदि राष्ट्रीय उद्यानों में कस्तूरी-मृग के पालन और प्रजनन के प्रयास आरम्भ किये गये हैं। यदि ये प्रयास सफल हो जाते हैं तो कस्तूरी मृगों को बचाया जा सकेगा।
कस्तूरी-मृग से कस्तूरी प्राप्त करने के लिये इसे मारना आवश्यक नहीं है। कस्तूरी मृग की मृगनाभि के छिद्र पर एक ट्यूब लगा कर कस्तूरी-मृग को बिना हानि पहुंचाये कस्तूरी प्राप्त की जा सकती है। इसी आधार पर सोवियत जीव वैज्ञानिकों ने कस्तूरी मृगों को व्यावसायिक स्तर पर पालने की योजना भी आरम्भ की है।
चीन ने भी कस्तूरी मृग के संरक्षण की अनेक योजनाएं आरम्भ की है। इन योजनाओं के अनुसार कस्तूरी मृगों को चिड़ियाघरों में रखा जाता है। यहां इनका प्रजनन कराया जाता है तथा इनसे कस्तूरी भी प्राप्त की जाती है। इस प्रकार कस्तूरी भी प्राप्त हो जाती है और कस्तूरी-मृग का संरक्षण भी हो जाता है।
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