Indian gazelle, also known as Gazella bennettii and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Chousingha.
Indian gazelle : Indian Wildlife
Wildlife of India : भारतीय गजेल (Indian gazelle) अर्थात् चिंकारा भारत के उत्तरी-पश्चिमी एवं मध्यभाग से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक के भागों में पाया जाता है। यह (Chinkara Hiran) खुले जंगलों, घास के मैदानों एवं अर्द्धरेगिस्तानी भागों में रहना अधिक पसन्द करता है।
Rajasthan State Animal Chinkara
चिंकारा हिरण
चिंकारा एक सुन्दर एवं आकर्षक वन्य प्राणी है। इसे अंग्रेजी में रेवीन डिअर अर्थात् चट्टानी दरारों में रहने वाला हिरन कहते हैं, किन्तु यह हिरन नहीं है। बल्कि कृष्ण-मृग के समान एक गवय (एन्टीलोप) है। इसे भारतीय गजेल भी कहते हैं। यह एक करोड़ बीस लाख वर्ष पुराना ऐसा वन्य-जीव है, जिसके रूप-रंग, आकार और संरचना आदि में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। गजेल की ग्यारह जातियां हैं, जिनके रूप-रंग, आकर और आदतों में पर्याप्त भिन्नता होती है। यह मुख्य रूप से उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका तथा एशिया के विभिन्न भागों में पाया जाता है। गजेल की सभी जातियों में अल्जीरिया, मिस्र और सूड़ान में पाया जाने वाला गजेल सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यह सबसे छोटा गजेल है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 52 सेन्टीमीटर से अधिक नहीं होती। पूर्वी अफ्रीका के जंगलों में पाया जाने वाला भीमकाय गजेल सबसे बड़ा होता है। इसकी लम्बाई एक मीटर तक होती है। साइबेरिया, मंगोलिया, चीन तथा तिब्बत में भी गजेल की तीन विशिष्ट जातियां पायी जाती हैं, किन्तु इनके विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
भारतीय गजेल अर्थात् चिंकारा भारत के उत्तरी-पश्चिमी एवं मध्यभाग से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक के भागों में पाया जाता है। यह खुले जंगलों, घास के मैदानों एवं अर्द्धरेगिस्तानी भागों में रहना अधिक पसन्द करता है।
चिंकारा प्रायः अकेले अथवा तीन-चार के झुण्ड में विचरण करता है, किन्तु कभी-कभी इसके 20-25 के झुण्ड भी देखने को मिल जाते हैं। इसकी बहुत-सी आदतें कृष्ण-मृग से मिलती-जुलती हैं। यह खुले मैदानों में नीलगाय का साथी बन जाता है और शुष्क भागों में सांभर के समान निवास करता है। चिंकारा एक ऐसा गवय है जो सीधी खड़ी चट्टान पर भी सरलता से चढ़ जाता है। इसकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह एक ही तरफ के दोनों पैर आगे बढ़ा कर चलता है। इसके साथ ही यह अपने चारों पैरों को एक दूसरे के निकट लाकर अपने शरीर को वक्राकार भी बना सकता है। इसके पैरों के इन्हीं विशिष्ट गुणों ने इसे छलांगें लगाते हुए तेज भागने वाला वन्य जीव बना दिया है।
चिंकारा हिरन के समान रंग-रूप वाला इकहरे शरीर का छोटा-सा सुन्दर गवय है। यह कृष्ण-मृग से छोटा होता है। इसकी कंधों तक की ऊंचाई 60 सेन्टीमीटर से 65 सेन्टीमीटर तक एवं शरीर की लम्बाई 60 सेन्टीमीटर से 75 सेन्टीमीटर तक तथा वजन 20 किलोग्राम से 25 किलोग्राम के मध्य होता है। इसके सिर, पीठ और पैरों का अधिकांश भाग लाली लिये हुए भूरा अथवा हल्के बादामी रंग का होता है एवं पेट व दोनों तरफ की बगलें, पैरों का भीतरी भाग, पूंछ के नीचे का भाग सफेद होता हैं। चिंकारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके चेहरे पर चारों ओर सफेद रंग की एक पतली-सी धारी होती है जो आंखों के नीचे से थूथन तक जाती है और फिर गले के नीचे के भाग से मिल जाती है। इसके चेहरे का शेष भाग लाली लिये हुए हल्के भूरे रंग का होता है। चिंकारा की गर्दन लम्बी और लोचदार होती है। यह अपने स्थान पर खड़े रह कर अथवा भागते हुए सरलता से पीछे मुड़ कर देख सकता है। इसकी पूंछ छोटी और काले रंग की होती है तथा हमेशा गतिशील रहती है। गर्मियों के दिनों में जब सूरज ऊपर होता है और छाया बहुत छोटी बनती है, उस समय चिंकारा का हल्के भूरे रंग का शरीर अपने आस-पास के स्थान से इतना मिल जाता है कि यदि यह शान्त खड़ा हो जाये तो दिखाई नहीं देगा। इस समय इसकी लहराती हुई पूंछ से ही इसकी उपस्थिति का आभास होता है। चिंकारा की पूंछ हमेशा सक्रिय रहती है। इसी से इसे घास के मैदानों में चरते समय पहचाना जा सकता है। चिंकारा के पैर बहुत पतले होते हैं, किन्तु इसकी चाल बड़ी सुन्दर और आकर्षक होती है। इसकी श्रवण-शक्ति, घ्राण-शक्ति और दृष्टि सामान्य होती है, किन्तु यह हमेशा सजग रहता है और खतरे का आभास होते ही तेजी से भाग कर सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाता है।
चिंकारा के सींग कृष्ण-मृग के समान ही सुन्दर और आकर्षक होते हैं, किन्तु ये कृष्ण-मृग के सींगों के समान ऐंठे हुए न होकर छल्लेदार होते हैं। सामान्यतया छल्लों की संख्या 15 से लेकर 25 तक होती है। चिंकारा के सींगों की लम्बाई 25 सेन्टीमीटर से 30 सेन्टीमीटर तक होती है। अभी तक के सबसे लम्बे सींगों का कीर्तिमान 40 सेन्टीमीटर राजस्थान के एक चिंकारा का है। इसके सींग सामने से तो कृष्ण-मृग के समान अंग्रेजी के 'वी' की तरह दिखायी देते हैं, किन्तु इनका आकार 'एस' के समान होता है। ये नीचे और ऊपर से 'एस' के समान विपरीत दिशाओं में मुड़े होते हैं। इसके सींगों में कृष्ण-मृग के सींगों जैसे छल्ले तो होते हैं, किन्तु ये ऐंठे हुए नहीं होते। चिंकारा के सींग ऊपर की ओर निकले हुए नुकीले तथा मजबूत होते हैं। यह इनका उपयोग अपने क्षेत्र की सीमारक्षा के लिये एवं शत्रुओं से लड़ते समय करता है। चिंकारा भारत में पाया जाने वाला एकमात्र ऐसा गवय है जिसमें मादा के भी सींग होते हैं। मादा चिंकारा के सींग छोटे होते हैं। इनकी लम्बाई 10 सेन्टीमीटर से 13 सेन्टीमीटर के मध्य होती है। नर चिंकारा एक सुन्दर वन्य प्राणी है, किन्तु मादा की संरचना में कोई विशेष सुन्दरता या आकर्षण नहीं होता।
चिंकारा शाकाहारी वन्यजीव है। यह प्रातःकाल अकेले अथवा दो तीन के झुण्ड में भोजन की तलाश में निकलता है और दोपहर तक घास-फूस विभिन्न प्रकार के फल-फूल, पत्तियां, लौकी, कट्टू, तरबूज आदि सब्जियां एवं वनस्पति आदि खाता है। इसका प्रिय भोजन घास एवं रसीले फल हैं, किन्तु शुष्क स्थानों पर घास न मिलने पर यह छोटी-छोटी झाड़ियां एवं पत्तियां आदि खाता है। पौधे के ऊपरी भाग को खाने में इसे बड़ा आनंद आता है। दोपहर की तेज धूप में यह लम्बी-लम्बी घास की ओट में या किसी छायादार वृक्ष के नीचे आराम करता है। धूप की गर्मी कम होने पर यह पुनः भोजन की तलाश में निकलता है और फिर रात को काफी देर तक चरता रहता है। चिंकारा अपनी लम्बी गर्दन के कारण कांटेदार झाड़ियों के नीचे उगे हुए उस चारे को भी साफ कर देता है, जहां सांभर या दूसरे हिरन अपना मुंह नहीं ले जा सकते। चिंकारा एक शर्मीला वन्य प्राणी है। यह मानव से हमेशा दूर रहना ही पसन्द करता है और चारे की कमी होने पर भी खेतों में कभी नहीं जाता। चिंकारा की एक अन्य विशेषता यह भी है कि यह गर्मियों की तेज धूप सरलता से सह लेता है और पानी के अभाव में भी सरलता से लम्बे समय तक रह सकता है। जीव वैज्ञानिकों का मत है कि रात्रि के समय ओस पड़ती है, जिससे घास-फूस, छोटे-छोटे पौधों की पत्तियों एवं झाड़ियों में पानी की मात्रा अधिक हो जाती है। चिंकारा रात्रि के समय इन्हें खाकर अपने शरीर की जल की आवश्यकता पूरी कर लेता है। यह पानी पीते समय हिंसक पशुओं से बचने के लिये विशेष रूप से सावधान रहता है। चिंकारा हमेशा 20-25 के झुण्ड बना कर नदी, तालाब या इसी प्रकार के पानी के स्रोत के निकट पहुंचता है और उससे कुछ दूरी पर रुक जाता है। अब झुण्ड के एक-दो सदस्य पानी के पास जाकर थोड़ा-सा पानी पीते हैं और फिर झुण्ड में वापस आ जाते हैं। इसके बाद दूसरे एक दो सदस्य जाते हैं और वे भी पहले वालों की तरह थोड़ा-सा पानी पीकर झुण्ड में लौट आते हैं। ऐसा वे कई बार करते हैं। जब उन्हें पूरा विश्वास हो जाता है कि जलस्रोत के निकट कोई हिंसक पशु नहीं है तभी पूरा झुण्ड जाकर पानी पीता है।
चिंकारा के सबसे बड़े शत्रु हैं-तेन्दुआ और भेड़िया। ये प्रायः नर चिंकारा का ही शिकार करते हैं। नर चिंकारा अकेले विचरण करता है या झुण्ड से थोड़ा अलग रहता है और विश्राम करने के लिये प्रायः उन्हीं झाड़ियों की ओट में पहुंच जाता है, जहां पहले से ही तेंदुआ या भेड़िया इसकी प्रतीक्षा में छिपे रहते हैं। यह खतरे का आभास होने पर पूरी गति से छलांगें लगाता हुआ भागता है, किन्तु प्रायः दो तीन सौ मीटर भागने के बाद रुक जाता है और पीछे मुड़कर शत्रु की स्थिति मालूम करने का प्रयास करता है। शत्रु की स्थिति मालूम होने के बाद यह पुनः भागता है और फिर रुक कर शत्रु की स्थिति मालूम करता है। ऐसा बार-बार करने पर चिंकारा और उसके शत्रु के बीच की दूरी कम होती जाती है, जिससे प्रायः यह अपने शत्रु का भोजन बन जाता है।
शेर भी चिंकारा का शिकार करता है। भूखी शेरनी और उसके बड़े बच्चों के लिये चिंकारा का शिकार बड़ा आसान होता है। ये इसके पानी पीने के स्थान के निकट छिप कर बैठ जाते हैं और अवसर मिलते ही आक्रमण कर देते हैं। शेरनी और उसके बच्चे मैदानी भागों में चिंकारा का शिकार सिंहनी की तरह करते हैं।
चिंकारा का समागम-काल मार्च-अप्रैल में होता है। इसके कस्तूरी-मृग के समान गंधयुक्त द्रव निकालने की कोई ग्रन्थि नहीं होती, फिर भी नर चिंकारा समागम-काल में अपने मल-मूत्र से अपनी क्षेत्र-सीमा बनाता है। इस क्षेत्र में केवल एक ही नर चिंकारा रह सकता है। समागम-काल में नर चिंकारा बड़ा आक्रामक हो जाता है। इस समय यदि आकार में उससे बड़ा और शक्तिशाली दूसरा नर आ जाये तो यह उससे भी टकरा जाता है। नर चिंकारा के क्षेत्र में केवल अपने बच्चों के साथ विचरण करती हुई मादाएं ही प्रवेश कर सकती हैं। प्रायः मादाओं के साथ कुछ नर भी होते हैं, किन्तु मादाओं के साथ होने के कारण सीमाक्षेत्र वाले नर चिंकारा का इन पर ध्यान नहीं जाता।
चिंकारा का सीमाक्षेत्र बहुत छोटा, लगभग सौ मीटर से तीन सौ मीटर तक होता है। इसके मध्य में एक वृक्ष या चट्टान अवश्य होती है। इस सीमाक्षेत्र से जब मादाओं का झुण्ड गुजरता है तो कुछ समय तक क्षेत्र वाला नर चिंकारा उनके साथ चलता है और उन्हें अपने क्षेत्र में रोकने का प्रयास करता है। इसके लिये वह अपने पास की मादा को अगले पैरों से धक्का देता है। इसका अर्थ प्रणय निवेदन या प्रणय प्रस्ताव होता है। यदि मादा को नर चिंकारा का प्रस्ताव स्वीकार नहीं होता तो वह दौड़ती हुई आगे बढ़ जाती है, अन्यथा झुण्ड का साथ छोड़ कर नर के साथ चलने लगती है और उसी के क्षेत्र में रह जाती है। इस समय नर और मादा के सिर विजेताओं के समान ऊपर उठे हुए होते हैं। प्रायः एक समागम-काल में प्रत्येक नर चिंकारा दो से पांच तक मादाओं के साथ समागम करता है। इस समय नर चिंकारा क्षेत्र के साथ मादा की भी रक्षा करता है। समागम-काल की समाप्ति के बाद मादा नर से अलग होकर पुनः अपने पहले वाले झुण्ड में मिल जाती है।
समागम-काल आरम्भ होते ही बहुत से ऐसे नर चिंकारा मादाओं के झुण्ड के साथ हो जाते हैं, जिनके पास अपना क्षेत्र नहीं होता। ये लम्बे समय तक मादाओं के साथ रहते हैं, किन्तु इन्हें मादा चिंकारा के साथ समागम करने के पूर्व आवश्यक रूप से किसी क्षेत्र वाले नर चिंकारा को पराजित करके उसके क्षेत्र पर अधिकार करना पड़ता है। इसके बाद ही उसे मादा चिंकारा प्राप्त होती है। मादाओं के झुण्ड के साथ रहने वाला नर चिंकारा क्षेत्र वाले चिंकारा की अधीनता में रहता है, विशेष रूप से उस समय, जब झुण्ड उस नर चिंकारा के क्षेत्र से होकर गुजर रहा हो।
चिंकारा आर्टियोडेक्टिला श्रेणी का प्राणी है। इस श्रेणी में प्राणियों का समागम मात्र दो या तीन सेकेण्ड का होता है तथा इसमें नर और मादा के प्रजनन अंगों के मध्य किसी प्रकार की घर्षण गति नहीं होती।
मादा चिंकारा का गर्भकाल 160 से 170 दिन का होता है। अर्थात् समागम के लगभग साढ़े पांच माह बाद वह एक बच्चे को जन्म देती है। कभी-कभी जुड़वां बच्चे होते भी देखे गये हैं। चिंकारा के प्रजनन पर मौसम का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है। यही कारण है कि कुछ भागों में रहने वाले चिंकारा वर्ष-भर प्रजनन करते हैं।
चिंकारा के नवजात बच्चे के पालन-पोषण का कार्य मादा करती है। मादा चिंकारा अपने बच्चे को तब तक किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा कर रखती है, जब तक कि वह बड़ा नहीं हो जाता। वह अपने बच्चे को दिन में तीन-चार बार दूध पिलाती है और इस मध्य उसे चाटती रहती है। मादा चिंकारा हिंसक पशुओं से अपने बच्चे को बचाने के लिये उसका मल-मूत्र तक खा जाती है, क्योंकि बच्चे के मल-मूत्र की विशिष्ट गंध के कारण हिंसक पशुओं का खतरा बना रहता है। कुछ ही दिनों में बच्चा बड़ा हो जाता है और लगभग एक महीने में अपनी मां के साथ चरने लगता है। मादा अपने बच्चे को छः माह तक दूध पिलाती है एवं डेढ़ वर्ष तक अपने साथ रखती है। चिंकारा के बच्चे 19 से 21 माह के मध्य प्रजनन के योग्य हो जाते हैं। इसके बाद नर चिंकारा अपने क्षेत्र के निर्माण में लग जाता है, जबकि मादा चिंकारा अपनी मां के साथ ही बनी रहती है।
समागम-काल समाप्त होते ही नर चिंकारा की क्षेत्र-सीमा स्वतः समाप्त हो जाती है और वह अपने झुण्ड के साथ किसी नये चारागाह की खोज में दूर-दराज के स्थानों की ओर चल पड़ता है। वापस लौटने पर नर को पुनः अपना क्षेत्र निर्धारित करना पड़ता है। प्रायः यह क्षेत्र बदल जाता है, क्योंकि क्षेत्र-सीमा के निर्धारण में हमेशा संघर्ष होता है और इस संघर्ष में विजेता नर चिंकारा ही अपनी पसन्द की क्षेत्र-सीमा निर्धारित कर सकता है।
वन्य जीवों में सामान्यतया यह नियम होता है कि एक ही जाति के नर, मादा आपस में समागम करते हैं। चिंकारा भी इस नियम का पालन करता है, किन्तु एक कीर्तिमान ऐसा भी है, जिस पर सरलता से विश्वास नहीं होता। एक बार समागम का इच्छुक एक नर चिंकारा मादा की खोज में निकला, किन्तु उसे काफी समय तक कोई मादा नहीं मिली। अचानक उसकी दृष्टि पास ही चरते हुए कृष्ण-मृगों के एक झुण्ड पर पड़ी। इस झुण्ड में नर, मादा व बच्चे सभी थे। नर चिंकारा ने एक क्षण कुछ सोच-विचार किया और फिर आक्रामक मुद्रा बना कर कृष्ण-मृगों के झुण्ड में घुस गया। उसने सभी नर कृष्ण-मृगों को भगाया और एक मादा कृष्ण-मृग को झुण्ड से अलग एकान्त में ले गया। नर चिंकारा ने मादा कृष्ण-मृग के साथ सफलतापूर्वक समागम किया और फिर विजेताओं के समान लौट गया।
गजेल की अनेक जातियां जंगलों की कटाई और शिकार के कारण विलुप्ति के कगार पर पहुंच गयी हैं। इनमें से एक चिंकारा भी हैं। चिंकारा की घटती हुई संख्या को देखते हुए भारत सरकार ने इसे विलुप्त-प्रायः जीवों की सूची में शामिल कर लिया है तथा इसके शिकार पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है।
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