संगाई हिरण : Sangai Deer

Dr. Mulla Adam Ali
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Sangai deer and it's species in Hindi by Dr. Parshuram Shukla, Wildlife in India, Bharatiya Vanya Jeev Sangai deer in Hindi.

Brow-Antlered Deer : Indian Wildlife

sangai deer in hindi

Wildlife of India : Sangai is a rare deer of South Asia. It is called Thamin in Burmese language and Sangai (Rucervus eldii eldii) in Manipuri language. Three deer of this species are found in South Asia. The first is Sangai of Thailand. It is found in Thailand as well as Vietnam and Hainan Island. The second is Sangai of Burma. It is found in Burma as well as Malaya and the third is Sangai of Manipur.

Sangai Deer (Eld's deer)

संगाई हिरण

संगाई दक्षिणी एशिया का एक दुर्लभ हिरन है। इसे बर्मी भाषा में थामिन और मणिपुरी भाषा में संगाई (Rucervus eldii eldii) कहते हैं। दक्षिणी एशिया में इस प्रजाति के तीन हिरन पाये जाते हैं। पहला थाईलैण्ड का संगाई है। यह थाइलैण्ड के साथ ही वियतनाम और हैनान द्वीप पर भी पाया जाता है। दूसरा बर्मा का संगाई है। यह बर्मा के साथ ही मलाया में भी देखने को मिलता है और तीसरा मणिपुर का संगाई है। किसी समय सभी जातियों के संगाई हिरन पूर्व में वियतनाम से लेकर पश्चिम में मणिपुर तक काफी विस्तृत क्षेत्र में फैले हुए थे और बहुत बड़ी संख्या में पाये जाते थे, किन्तु वर्तमान में संगाई विश्व का सर्वाधिक दुर्लभ और एक सीमित क्षेत्र में पाया जाने वाला हिरन बन गया है। इसकी तीनों जातियां विलुप्ति के कगार पर हैं। इनमें से मणिपुर के संगाई की स्थिति सर्वाधिक दयनीय है। थाईलैण्ड के जंगलों में संगाई की एक चौथी जाति भी पायी जाती थी, किन्तु उचित संरक्षण के अभाव में यह सन् 1932 से 1937 के मध्य विलुप्त हो गयी।

मणिपुर का संगाई भारत में केवल मणिपुर राज्य के एक बहुत छोटे-से भाग में पाया जाता है। यह मणिपुर की लोगतक झील के दक्षिण-पूर्व में केईबुललमजाओ के दलदल वाले भाग में रहता है तथा घने जंगलों और ऊंचे पर्वतीय जंगलों में कभी नहीं जाता। यह सदैव झुण्ड में रहना पसन्द करता है। किसी समय इसके 200 से 300 तक के झुण्ड सरलता से देखने को मिल जाते थे। स्वतंत्रता पूर्व भी इसके 10 से 20 तक के अनेक झुण्ड देखे गये, किन्तु अब 3-4 से अधिक संगाई हिरनों के झुण्ड देखने को नहीं मिलते। सन् 1952 में तो मणिपुर शासन ने इसे विलुप्त घोषित कर दिया था, किन्तु इस घोषणा के कुछ समय बाद अचानक एक दिन स्थानीय लोगों ने तीन-चार संगाई देखे और उन्होंने इसकी सूचना मणिपुर के स्थानीय अधिकारियों को दी। इसके बाद इसके संरक्षण और विकास का कार्य आरम्भकिया गया, किन्तु इस कार्य में सन् 1975 तक कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। विख्यात भारतीय जीव वैज्ञानिक श्री रणजीत सिंह द्वारा सन् 1975 में किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार इनके प्रमुख निवास मणिपुर के केईबुललमजाओ के दलदल वाले भाग में 35 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक टापू पर इनकी संख्या 14 शेष रह गयी थी। मणिपुर का संगाई हमेशा से एक सीमित क्षेत्र में रहा है। ब्रिटिश शासन काल में और इसके पूर्व स्थानीय शासकों द्वारा संगाई की समुचित ढंग से सुरक्षा की जाती थी, किन्तु आजादी के बाद इसका इतना अधिक शिकार किया गया कि इसकी संख्या इतनी कम हो गयी और यह विलुप्ति के कगार पर पहुंच गया।

संगाई एक सुन्दर और शानदार हिरन है। दूर से देखने पर यह सांभर जैसा दिखाई देता है, किन्तु यह सांभर से पूरी तरह भिन्न होता है और आकार में सांभर से कुछ छोटा होता है। संगाई की कंधों तक की ऊंचाई 100 सेन्टीमीटर से 120 सेन्टीमीटर तक, पूंछ सहित शरीर की लम्बाई 120 सेन्टीमीटर से 150 सेन्टीमीटर तक एवं वजन 90 किलोग्राम से लेकर 125 किलोग्राम तक होता है। इसकी त्वचा रूखी एवं हल्की होती है। नर संगाई का रंग कालापन लिये हुए गहरा बादामी या भूरा होता है। संगाई मौसम के अनुसार अपना रंग बदलता है। सर्दियों का गहरे भूरे रंग का नर संगाई गर्मियों में बादामीपन लिये हुए हल्के भूरे रंग का हो जाता है। नर संगाई के समान ही मादा का रंग भी सर्दियों के मौसम में गहरा हो जाता है और गर्मियों के मौसम में पुनः हल्का पीलापन लिये हुए बादामी हो जाता है। संगाई के पेट एवं शरीर के नीचे का भाग ऊपर के भाग की तुलना में हल्के रंग का होता है तथा कभी-कभी इसकी आंखों के पास सफेद्र निशान देखने को मिल जाते हैं। इसके कानों के भीतर का भाग हल्का गुलाबीपन लिये हुए सफेद तथा मुंह व नथुनों के पास का कुछ भाग कालापन लिये हुए गहरा कत्थई होता है। नर संगाई की गर्दन पर बालों की छोटी-सी अयाल होती है तथा इसकी गर्दन मादा की गर्दन से काफी लम्बी होती है।

वर्मा के संगाई की शारीरिक संरचना मणिपुर के संगाई के समान होती है, किन्तु इसके मृगशृंग (एन्टलर्स) मणिपुर के संगाई से बड़े होते हैं। मणिपुर के संगाई की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें मादा के पैरों का निचला खुरों वाला भाग बालों वाला न होकर उस पदार्थ का होता है, जिसके सींग होते हैं। खुरों की संरचना इस प्रकार की होती है कि यह दलदल वाले भागों में सरलता से भाग सकती है। मादा संगाई हमेशा ठुमक ठुमक कर चलती है। इसीलिये संगाई को नर्तक हिरन (Dancing Deer) भी कहते हैं।

संगाई के मृगशृंग विश्व के सभी हिरनों से भिन्न होते हैं। इन्हीं मृगश्रृंगों की सहायता से इसे सरलता से पहचाना जा सकता है। इसके मृगशृंग बाहर की ओर निकले हुए एवं मस्तक के आधार से समकोण बनाते हुए होते हैं तथा आधार से कुछ दूरी तक शाखा रहित होते हैं। इनमें शाखाओं का विकास ऊपर उठने के बाद होता है। संगाई के मृगशृंगों की बाहरी शाखाओं से अनेक छोटी-छोटी शाखाएं निकलती हैं। इनकी संख्या 4 से 12 तक हो सकती है। इसके दोनों मृगशृंगों का विकास भी असमान ढंग से होता है। संगाई के मृगशृंग गोलाई में बहुत घूमे हुए होते हैं। इसमें बड़ी आयु के नर संगाई के मृगश्रृंगों का घुमाव एक स्पष्ट कोण बनाते हुए होता है, जबकि नव वयस्क नरों के मृगशृंग गोलाई में अंग्रेजी के 'सी' के समान घूमे हुए होते हैं। इसके प्रत्येक मृगशृंग की पहली शाखा विशेष रूप से गोलाई लिये हुए होती है तथा बगलों से देखने पर धनुष की तरह मालूम पड़ती है। इसीलिये संगाई को मस्तक-शृंग हिरन (Brow Antlered Deer) कहते हैं।

wildlife sangai deer
Sangai Deer : Indian Wildlife

संगाई के मृगशृंग देखने में बड़े सुन्दर होते हैं। ये मोटे और चपटे होते हैं तथा इनकी लम्बाई शाखा के एक सिरे से लेकर मुख्य शाखा के सिरे तक नापी जाती है। संगाई के मृगशृंगों की लम्बाई 60 सेन्टीमीटर से 100 सेन्टीमीटर तक होती है। इनमें 90 सेन्टीमीटर से अधिक लम्बे मृगश्रृंगों वाले संगाई अच्छे माने जाते हैं। भारत में अभी तक 107 सेन्टीमीटर तक लम्बे मृगश्रृंगों वाले संगाई देखे गये हैं। विश्व में सबसे अधिक लम्बे मृगश्रृंगों का कीर्तिमान 113 सेन्टीमीटर बर्मा के संगाई का है।

संगाई मुख्य रूप से दिवाचर है, अर्थात् दिन में भोजन करता है और रात्रि के समय आराम करता है। संगाई प्रायः छोटे-छोटे समूहों में, सूर्योदय के पूर्व ही चरना आरम्भ कर देता है। यह गर्मियों की कड़ी धूप में घने वृक्षों की छाया में अथवा किसी सुरक्षित छायादार स्थान पर आराम करता है और धूप कम होते ही पुनः चरना आरम्भ करता है तथा सूर्यास्त तक चरता है। इसे खुले मैदानों, झाड़ी वाले समतल वनों एवं निचले दलदल वाले कम घने जंगलों में चरना बहुत पसन्द है। यह कभी-कभी रात्रि के समय समीप के खेतों में भी पहुंच जाता है और फसलों को नुकसान पहुंचाता है। सांभर के समान संगाई भी जमीन पर उगने वाली घास चरने के साथ ही वृक्षों की पत्तियां तथा मुलायम कोंपलें आदि तोड़ कर खाता है, किन्तु इसका प्रमुख भोजन दलदल में तैरते हुए भूखण्ड़ों पर उगने वाली एक विशेष प्रकार की घास, जंगली चावल तथा कुछ जंगली वनस्पतियां हैं। मणिपुर में इन तैरते हुए विशाल भूखण्ड़ों को फुम्दी (Phumdi) कहते हैं। इसका निर्माण विभिन्न प्रकार के पदार्थों, मिट्टी तथा वनस्पतियों से मिलकर होता है। ये 30 सेन्टीमीटर से लेकर 120 सेन्टीमीटर तक मोटे होते हैं तथा मौसम के अनुसार तैरते हैं। फरवरी-मार्च के महीनों में गर्मी के कारण आस-पास की जमीन सूख जाती है तथा तैरते हुए भूखण्ड़ों की जमीन भी सूख कर कठोर हो जाती है। इन महीनों में ये नीचे की ठोस जमीन से चिपक जाते हैं और वर्षा आरम्भ होने पर ये तीन-चार दिन पानी में डूबे रहते हैं और फिर स्वतः ऊपर उठ कर तैरने लगते हैं। बाद के दिनों में तैरने वाले भूखण्ड चारों ओर से पानी से घिर जाते हैं तथा पानी में डूब-से जाते हैं। अतः संगाई ऊंचाई वाले भागों में चला जाता है। संगाई के लिये बाढ़ सदैव घातक होती है। सन् 1966 की भयानक बाढ़ में बहुत से तैरने वाले भूखण्ड बह गये थे और इसके साथ ही आधे से अधिक संगाई भी काल-कवलित हो गये थे। तैरने वाले भूखण्डों का वर्षा से सीधा सम्बन्ध है। तीन-चार वर्ष वर्षा न होने अथवा कम वर्षा होने पर ये भूखण्ड सूख जाते हैं और पास की भूमि का स्थायी अंग बन जाते हैं और इस प्रकार संगाई का निवास-स्थल छोटा होता जाता है। तैरने वाले भूखण्ड जितने पुराने होते हैं, उतने ही मोटे, भारी और मजबूत होते हैं। इन्हीं भूखण्ड़ों पर उगने वाली घासें, झाड़ियां तथा अन्य वनस्पतियां ही संगाई का प्रमुख भोजन है। तैरते हुए भूखण्ड़ों पर उगने वाली कोमबोंग नामक घास तो इसका जीवन है। कोमबोंग घास की मणिपुर में सदैव कमी रहती है, क्योंकि यह मणिपुर में पायी जाने वाली पालतू भैंसों का भी मनपसन्द भोजन है।

संगाई के मृगश्रृंग अगस्त में गिर जाते हैं और नवम्बर-दिसम्बर में पुनः निकलना आरम्भ हो जाते हैं व मार्च-अप्रैल में पूरे निकल आते हैं। यही इनका तमागम-काल होता है। समागम-काल में मादा धीरे-धीरे गुर्राती है तथा नर लम्बी और तेज गुरनेि की आवाज निकालता है। समागम-काल में नर हरम बनाता है, जिसमें 2 से 4 तक मादाएं होती हैं। सांभर और बारहसिंघा आदि हिरनों के समान संगाई नर भी मादा को प्राप्त करने के लिये आपस में लड़ते हैं। इनकी लड़ाई बड़ी घातक होती है। संगाई की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये अपने मृगशृंगों से एक दूसरे के मुंह पर आक्रमण करते हैं, इससे प्रायः इनकी एक आंख फूट जाती है और कभी-कभी तो दोनों आंखें फूट जाती हैं, जिससे ये अंधे हो जाते हैं। अंधा संगाई अपनी घ्राण-शक्ति और श्रवण-शक्ति के सहारे झुण्ड के साथ रहने का प्रयास करता है। वह जब तक झुण्ड के साथ रहता है, तभी तक सुरक्षित रहता है और झुण्ड से अलग होते ही किसी शिकारी अथवा हिंसक पशु का शिकार बन जाता है।

विजेता शक्तिशाली संगाई 'स्वामी नर' की तरह रहता है। वह अपने साथ ही अपने हरम की मादाओं की भी सुरक्षा करता है तथा उनके साथ समागम करता है। समागम-काल के बाद नर संगाई अपना हरम तोड़ देता है और अकेला रहता है, किन्तु कभी-कभी नर संगाई को समागम- काल के बाद भी एक या दो मादाओं के साथ देखा गया है। मई के बाद नर संगाई झुण्ड से पूरी तरह से अलग हो जाता है और एकान्त में विचरण करता है।

समागम के लगभग आठ माह बाद मादा संगाई एक बच्चे को जन्म देती है। इनमें प्रायः जुडवां बच्चे नहीं होते। जन्म के समय बच्चे के शरीर पर सफेद रंग की चित्तियां होती हैं जो बड़े होने पर धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं। नर बच्चे के मृगश्रृंग दूसरे वर्ष निकलना आरम्भ हो जाते हैं तथा दो से ढाई वर्ष के मध्य यह वयस्क हो जाता है। इसकी आयु में वृद्धि के साथ ही इसके मृगशृंगों में भी निखार आता जाता है। सात वर्ष के नर संगाई के सींग सबसे सुन्दर होते हैं। इसके बाद इसके जीवन का उतार आरम्भ हो जाता है।

मणिपुर संगाई हिरनों के मूल निवास केईबुललमजाओ में पाबोट, तोया और चिनगियाओ नामक तीन ऊंचे पर्वत हैं। इन पर्वतों के अतिरिक्त केईबुललमजाओ का अधिकांश भाग तैरने वाले भूखण्ड़ों से बना है। प्रतिवर्ष वर्षा और बाढ़ के समय संगाई निचले मैदानी भागों को छोड़कर पर्वतीय भागों पर चला जाता है। इसी समय इसका शिकार किया जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है। कि संगाई केवल तैरते हुए भूखण्ड़ों पर ही रहने वाला हिरन नहीं है, यह पर्वतीय वनों पर भी रह सकता है। अतः संगाई के संरक्षण के लिये केईबुललमजाओ के मैदानी भागों के साथ ही तीनों पर्वतीय क्षेत्रों की भी सुरक्षा आवश्यक है। संगाई के संरक्षण के लिये भारत सरकार द्वारा घोषित संरक्षित क्षेत्र काफी बड़ा है, किन्तु स्थानीय निवासियों द्वारा भूमि पर अतिक्रमण तथा पालतू पशुओं की चराई के कारण संगाई का वास्तविक निवास क्षेत्र लगभग 16 वर्ग किलोमीटर से अधिक नहीं रह गया है। संगाई के जीवन के लिये दलदल और तैरते हुए भूखण्ड आवश्यक हैं। यदि ये दोनों समाप्त हो गये तो संगाई भी समाप्त हो जायेगा। अतः संगाई को बचाये रखने के लिये अतिक्रमण को रोका जाना चाहिये एवं सम्पूर्ण केईबुललमजाओ क्षेत्र में घास की कटाई, पालतू पशुओं की चराई, मछली पकड़ने आदि पर कठोर प्रतिबन्ध लगाना चाहिये। इसके साथ ही स्थानीय निवासियों और शिकारियों की घुसपैठ बन्द करना भी आवश्यक है।

संगाई के संरक्षण के लिये भारत सरकार द्वारा किये जाने वाले प्रयास भी सराहनीय हैं। भारत सरकार ने संगाई की सुरक्षा के लिये केईबुललमजाओ क्षेत्र को सन् 1954 में अभयारण्य घोषित कर दिया था और इसके शिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस समय इस अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग 52 वर्ग किलोमीटर था जो 1959 में घट कर 27 वर्ग किलोमीटर रह गया। सन् 1966 में इसे पूर्ण अभयारण्य घोषित किया गया तथा 1968 में इसमें 8 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र और जोड़ दिया गया। 28 मार्च 1977 को भारत सरकार ने केईबुललमजाओ को राष्ट्रीय पार्क घोषित कर दिया तथा इस क्षेत्र में मछली पकड़ने और शिकार पर कड़े प्रतिबन्ध लगा दिये व मणिपुर राज्य में वन्य जीवन सुरक्षा अधिनियम लागू कर दिया गया।

संगाई की सुरक्षा के लिये मणिपुर सरकार द्वारा भी प्रयास किये जा रहे हैं। मणिपुर सरकार ने मणिपुर नदी को रोक कर एक स्थायी जलाशय बनवाया है, जिससे केईबुललमजाओ क्षेत्र में सदैव एक निश्चित जल-स्तर बना रहेगा। इससे तैरते हुए भूखण्ड़ों का विस्तार होगा जो संगाई के विकास हेतु आवश्यक है।

संगाई के संरक्षण का बहुत बड़ा श्रेय एक अभिनव योजना को है, जिंसके अन्तर्गत सन् 1962 में संगाई का एक जोड़ा कलकत्ता के और एक जोड़ा दिल्ली के चिड़ियाघर में भेजा गया था। इसके बाद सन् 1975 में केईबुललमजाओ में मात्र 14 संगाई रह गये थे, जिनमें 5 नर, 6 मादाएं और तीन बच्चे थे। सन् 1977 में इनकी संख्या में विकास हुआ और यह 18 हो गयी। इसमें 6 नर 8 मादाएं और 4 बच्चे थे। इसके साथ दिल्ली और कलकत्ते के चिड़ियाघरों में भी संगाई हिरनों की संख्या बढ़ी।

चिड़ियाघरों में संगाई के सफल प्रजनन के बाद इन्हें अहमदाबाद, हैदराबाद, मैसूर, लखनऊ तथा कानपुर के चिड़ियाघरों में भेजा गया। इस समय इनकी संख्या 60 से अधिक हो चुकी है। इनमें से आधे केईबुल- लमजाओ राष्ट्रीय पार्क में हैं और आधे विभिन्न चिड़ियाघरों में हैं।

- डॉ. परशुराम शुक्ल

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