बाल साहित्य के प्रतिमानों के निर्धारक : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

Dr. Mulla Adam Ali
0

Dr. Nagesh Pandey ‘Sanjay’ Book Bal Sahitya Ke Pratiman Review by Dr. Nitin Sethi, Hindi Children's Books, Children's Literature in Hindi, Bal Sahitya Pustak Samiksha.

Bal Sahitya Ke Pratiman

bal sahitya ke pratiman book review

बाल साहित्य के प्रतिमानों के निर्धारक

डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक : बाल साहित्य के प्रतिमान 
लेखक : डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’
प्रकाशक : बुनियादी साहित्य प्रकाशन, लखनऊ
मूल्य : रु 300, पृष्ठ : 240
समीक्षक : डॉ. नितिन सेठी

      सर्जक को अपनी सृजनात्मकता का उपयोग करने के लिए सदैव स्वतंत्रता रहती है। अपने सृजन को व्यापक आयाम देता साधक जहाँ कुछ नया रचता है, वहीं अपनी पूर्व परम्परा से भी बहुत कुछ ग्रहण किया करता है। अपने पूर्ववर्ती सर्जकों का कृतित्व भी उसके समक्ष रहता है जो यह निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र विशेष में सृजनात्मकता के क्या-क्या सामान्य नियम या मानक बना दिये गये हैं। आमतौर पर यही नियम या मानक ‘प्रतिमान’ कहलाते हैं। ‘प्रतिमान’ अर्थात् वे आधार जिनके पालन से हम अपने भावी सृजन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कला के प्रत्येक क्षेत्र में अनेक प्रतिमानों का निर्धारण किया जाता रहा है। साहित्य के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। साहित्य में तो कवि को वैसे भी प्रजापति कहा गया है- ‘अपारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापति। कवि अपनी कलम से कोई भी सृष्टि उत्पन्न कर देते हैं। और यदि यह साहित्य बाल साहित्य है, तब तो प्रतिमान अपनी पूरी प्रत्यंचा के साथ तने और सधे हुए होने आवश्यक हैं।

       डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’ की पुस्तक ‘बाल साहित्य के प्रतिमान प्रस्तुत विषय पर एक व्यापक विमर्श कही जा सकती है। डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’ पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से बाल साहित्य के सृजन में सक्रिय हैं। बाल साहित्य के क्षेत्र में कविता, कहानी, उपन्यास के सृजन में सक्रिय रहने के साथ-साथ आपने समाचोलना को भी अपना पर्याप्त समय दिया है। ‘बाल साहित्य के प्रतिमान’ जैसे विषय को शब्दायित करने के लिए आपने विभिन्न समालोचना सिद्धान्तों का सहारा लिया है। इस संदर्भ में आपके विचार उल्लेखनीय हैं। "बाल साहित्य के क्षेत्र में शोध और आलोचना के संदर्भ में लगभग छः दशकों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। समय-समय पर बाल साहित्य लेखन के आधारभूत सिद्धान्तों पर यथासंक्षिप्त छिट-पुट चर्चा भी होती रही है, किन्तु वह अत्यंत संकुचित, एकांगी और अव्यवस्थित होने के कारण अपूर्ण और अपर्याप्त ही कही जाएगी। दूसरे काल और परिस्थिति के सापेक्ष वर्तमान बाल साहित्य के मानक भी परिवर्तित हो चले हैं। अस्तु, ऐसी पुस्तक की एक लम्बे समय से आवश्यकता उद्घाटित की जा रही थी जिसमें विस्तारपूर्वक बाल साहित्य के प्रतिमानों का सोदाहरण विवेचन हो।

       अध्ययन की दृष्टि से संजय ने पुस्तक को तीन भागों में बाँटा है- अभिज्ञान, प्रतिमान तथा अनुमान। प्रथम खण्ड ‘अभिज्ञान’ के अन्तर्गत कुल चार अध्याय समाहित हैं। ‘अभिज्ञान’ का सामान्य अर्थ है पहचान या स्मरण। बाल साहित्य का सरल अभिज्ञान करवाता प्रस्तुत खंड बाल साहित्य का अर्थ बतलाते हुये बाल साहित्य की समीक्षा का स्वरूप दर्शाता है। बाल साहित्य समीक्षा की विकास यात्रा पर बात करते हुए लेखक ने बाल साहित्य समीक्षा के प्रमुख स्तम्भों से भी हमारा परिचय करवाया है। बाल साहित्य को परिभाषाबद्ध करते अनेक विद्वानों के सार्थक वक्तत्य यहाँ उपस्थित हैं। स्वयं संजय जी का निष्कर्ष है, जिस साहित्य से सहजतापूर्वक बालकों का स्वस्थ मनोरंजन, ज्ञानवर्धन और चरित्र सम्वर्द्धन हो, वही सही अर्थों में बाल साहित्य है। बाल साहित्य का उद्देश्य, आवश्यकता, महत्व, रूप आदि का विशद् विवेचन डा. नागेश यहाँ करते हैं। बाल साहित्य के विषय और विधाओं का वर्गीकरण वैज्ञानिक रूप से किया गया है। बाल साहित्य के संक्षिप्त इतिहास की प्रस्तुति महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान बाल साहित्य की दिशा पर डॉ. नागेश ठीक ही लिखते हैं। वर्तमान समय में बालकों के लिए नई सज-धज और आकर्षण के साथ एक से बढ़कर एक रचनाएँ प्रकाशित हो रही हैं। इससे इस आशा को बल मिलता है कि बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल तथा इसकी इक्कीसवीं सदी बच्चों की तथा बाल साहित्य की सदी होगी।

    बाल साहित्य समीक्षा का स्वरूप दर्शाते हुए डॉ. नागेश इसे वस्तुपरक बनाने पर जोर देते हैं, न कि व्यक्तिपरक। उनके शब्दों में बाल साहित्य समीक्षा बाल साहित्य के गुण-दोष का सम्यक् विवेचन कर उत्तम साहित्य का स्वरूप निर्धारित करती है और बालकों तथा उनके हितचिंतकों को उसके महत्व से अवगत कराती है। ज्ञातव्य है कि बाल साहित्य समीक्षा की आधार भूमि में पत्र-पत्रिकाएँ, स्वंतत्र कृतियाँ, भाषण, जर्नल्स, शोध, अनुसंधान आदि आते हैं। डॉ. नागेश का मानना है कि समीक्षक बाल साहित्य का शास्त्रीय मूल्यांकन करें और अपनी दृष्टि शोधात्मक रखें। बाल साहित्य समीक्षा की लम्बी विकास-यात्रा से गुजरते हुए इसके प्रमुख स्तंभों का परिचय देते हुए डॉ. नागेश की सोच महत्वपूर्ण है। बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ होना शेष है। आवश्यकता है गंभीर अध्येताओं की, जो निष्पक्ष भाव से समग्र स्थिति का गंभीर आकलन कर सकें।

    बाल साहित्य के प्रतिमानों को क्रमशः बाल काव्य, बालकथा साहित्य, बाल नाटक तथा अन्य विधाओं में वर्गीकृत करते हुए डॉ. नागेश इनके मूलभूत तत्त्वों पर विस्तृत प्रकाश डालते हैं। शिशु, बाल, -किशोर काव्य को विभिन्न प्रतिमानों के आलोक में देखा गया है। प्रत्येक काव्य की आवश्यकता और महत्व पर विचार करते हुए इसके तत्त्व, वस्तु विधान, शिल्प विधान पर डा. नागेश अपनी कलम चलाते हैं। उनका निष्कर्ष महत्त्वपूर्ण है, बालकाव्य की अपनी साहित्यिकता भी है और शास्त्रीयता भी। बालकाव्य के मनोवैज्ञानिक पक्ष को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। मनोविज्ञान के आधार पर ही बालक की अवस्था के अनुकूल रुचिपूर्ण बालकाव्य की रचना का मार्ग प्रशस्त होता है। शिशु,-बाल-किशोर उपन्यास बीस-तीस हजार की शब्द सीमा से अधिक नहीं होने चाहिए। नाटक- एंकाकी मूलतः अभिनेय विधाएँ हैं। अतः इनके शास्त्रीय आधार भी थोडे़ भिन्न ही हैं। शिशु-बाल-किशोर नाटक व एकांकी के तत्त्वों के विशिष्ट प्रतिमानों का भी डा. नागेश उल्लेख करते हैं।

    आज बाल साहित्य में कहानी-,उपन्यास के अतिरिक्त निबंध, संस्मरण, यात्रावृत्त, साक्षात्कार, पत्र-साहित्य जैसी विधाएँ भी अपना स्वरूप निर्धारित कर रही हैं। डा. नागेश इन विधाओं में लेखन के दो रूप देखते हैं- यथार्थ और काल्पनिक। किन्तु इन विधाओं की मूल प्रवृत्ति यथार्थपरक ही है। भविष्य की योजनाएँ सदैव अनुमान में ही रहती हैं। बाल साहित्य का भविष्य डा. नागेश के शब्दों में : बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है। अक्षुण्ण सम्भावनाओं से ओत-प्रोत है।

        प्रस्तुत कृति ‘बाल साहित्य के प्रतिमान’ अपने सीमित कलेवर में बाल साहित्य के तीनों कालखंडों—भूत, वर्तमान, भविष्य का विशद् विश्लेषण और संतुलित समाकलन प्रस्तुत करती है। प्रत्येक कालखंड की विशिष्टताएँ, उसकी विधागत प्रस्तुतियाँ और बाल साहित्य में योगदान--इन सभी का व्यापक वर्णन हम यहाँ प्राप्त करते हैं। अपने आप में प्रस्तुत पुस्तक एक अकेला और विशिष्ट कार्य है। प्रतिमानों का निर्धारण कोई आसान कार्य नहीं होता। पुरातन परम्परा को वर्तमान से जोड़ते हुए भविष्य की रूपरेखा तय करनी होती है। संतोष की बात है कि डा. नागेश पांडेय ‘संजय’ ने अपनी सार्थक दृष्टि से बाल साहित्य के क्षेत्र में बहुत दूर तक के चित्रों का वर्णन करने में पर्याप्त सफलता पाई है। इस कृति के कार्य को और अधिक बड़े फलक पर विस्तार दिये जाने की आवश्यकता भी महसूस होती है। समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक और शैक्षिक दृष्टिकोण से भी बाल साहित्य के प्रतिमानों का निर्धारण किये जाने की आवश्यकता आज के समय की माँग है।

▪️समीक्षक : डॉ. नितिन सेठी, बरेली

ये भी पढ़ें; डॉ. नागेश की कहानियों में नटखट बचपन

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. learn more
Accept !
To Top