सामाजिक सरोकारों और उनके दृष्टिकोण की व्यापकता को दर्शाता काव्य संग्रह : ग्रहण काल एवं अन्य कविताएँ

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Poetry Collection Book Grahan Kaal Evam Anya Kavitayen by Dr. Razia, Hindi Kavya Sangrah Book Review by Dr. Saroj Singh, Hindi Kavita Sangrah.

Grahan Kaal Evam Anya Kavitayen

grahan kaal book review in hindi

सामाजिक सरोकारों और उनके दृष्टिकोण की व्यापकता को दर्शाता काव्य संग्रह

पुस्तक : ग्रहण काल एवं अन्य कविताएँ
लेखिका : डॉ. रजिया
प्रकाशक : सृजनलोक प्रकाशन, नई दिल्ली
समीक्षा : डॉ. सरोज सिंह

ग्रहण काल एवं अन्य कविताएँ (समीक्षा)

डॉ. रजिया का काव्य-संग्रह “ग्रहण काल”, कला, भावना और सक्रियता का एक शानदार संगम है। 75 कविताओं का यह संकलन मानव अस्तित्व के असंख्य पहलुओं के लिए एक शक्तिशाली दर्पण के रूप में खड़ा दिखाई देता है, जो सामाजिक वास्तविकताओं, व्यक्तिगत संघर्षों और आशा की अदम्य भावनाओं को दर्शाता है। इस पुस्तक में प्रकाशित सभी रचनाओं में डॉ. रज़ि‍या ने अपनी सूक्ष्मता और मौलिकता के साथ ऐसे भाव गढ़े हैं जो सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भों में गहराई से निहित होने के साथ-साथ सार्वभौमिक रूप से गूँजते हैं। “ग्रहण काल” शीर्षक कविता हमारे जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियों अर्थात ग्रहणों के लिए एक रूपक के रूप में रची गई है –

“देखो तो कैसा पसर गया है

एकदम घुप्‍प, काला अंधकार

लील गया है अजगर की तरह

सूरज की पूरी की पूरी उजास”

और इसी के साथ ही कवयित्री ने सकारात्‍मक रूप से इसी अंधेरे के क्षण को हमारे धीरज और विश्वास का परीक्षण बताते हुए एक नव प्रभात के उग आने का भरोसा व संकेत दिया है-

जितना बढ़ता जाता है अंधकार

उतना ही प्रबल होता जाता है विश्वास

अब जल्द ही छंटेगा अंधेरा

खत्म होगा ग्रहण काल

होगा फिर से एक नया बिहान।

डॉ. रज़ि‍या ने लचीलेपन के सार को थामा है, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि हर ग्रहण के बाद प्रकाश वापस आता ही है। आशावाद का यह विषय, पूरे संग्रह के माध्यम से चलता है, जो पाठकों को उनके व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्षों से धैर्यपूर्ण लड़ने में सांत्वना प्रदान करता है। “ग्रहण काल” की सबसे खास विशेषताओं में से एक सामाजिक मुद्दों की इसकी साहसिक आलोचना है। “बेदखल” और “पवित्रता का सर्टिफिकेट” जैसी कविताएँ हाशिए पर पड़े समुदायों की पीड़ा को आवाज़ देती हैं। महिलाओं, दलितों और तीसरे लिंग के व्यक्तियों द्वारा नियमित रूप से सामना की जानेवाली व्यवस्थागत उपेक्षा और अन्याय को बेखौफ उजागर करती हैं। डॉ. रज़ि‍या की तीखी टिप्पणियाँ लंबे समय से चले आ रहे मानदंडों को ध्वस्त करती हैं, पाठकों को विशेषाधिकार, बहिष्कार और उदासीनता के बारे में असहज सच्चाईयों का सामना करने की चुनौती देती हैं।

“पवित्रता का सर्टिफिकेट” कविता में वह महिलाओं पर लगाए गए दोहरे मानदंडों को बेबाकी से संबोधित करती हैं, शुद्धता और सदाचार की सामाजिक अपेक्षाओं पर सवाल भी उठाती हैं। इसी तरह, “उखड़ना होगा” दमनकारी प्रणालियों के खिलाफ प्रतिरोध का नारा है, जो मानवता की न्याय और समानता की साझा विरासत को पुनः प्राप्त करने के लिए सामूहिक कार्रवाई का आग्रह करता है।

मर्दों की बनाई इस जहाँ में

जन्मते ही

सारी पाबंदियाँ स्त्रियों में

ठूंस-ठूंस कर भरी जाती हैं, अब भी

वैसे ही जैसे भरी जाती थी

हमारे दादी अम्मा के समय में।

कवयित्री यह भी कह रही हैं कि-

मैं इंतज़ार में हूँ

उस सवेरे का

जब हर स्त्री एक हो

करेंगी तुमसे सवाल।

भावनात्मक दृष्‍टि

जबकि डॉ. रज़ि‍या की कविताएँ सामाजिक संरचनाओं की आलोचना करती हैं, यह मानवीय भावनाओं की खोज में भी उतनी ही गहरी प्रतीत होती हैं। उनकी कविताएँ प्रेम, लालसा, हानि और आत्मनिरीक्षण के पटल को पार करती हैं।

“मोहब्बत हो तुम मेरे”, “मोहब्बत हो तुम!” और “जब भी देखो मुझे” जैसी गहरी भावनात्मक कविताएँ मोहब्‍बत की गहनता, प्‍यार की कोमलता और भेद्यता को उजागर करती हैं, जो समय और स्थान की बाधाओं को चीरते हुए प्रेम के रिश्तों के ज्वलंत चित्र उकेरती हैं।

यह पंक्‍तियाँ देखें-

“एक दिन

वह नहीं बोली

मुझसे

फिर भी शामिल रही

मुझमें

खुशबू की तरह

और बेचैनी में

मुझे

नींद नहीं आई

रात भर।”

और---

बस, रूह मेरी

रात की काली परछाई के

सन्नाटों में डूबते-उतरते

समुद्र-सी बेचैनी के आगोश में था।

इसी तरह “स्मृतियाँ” और “स्लेट” कविताओं में, पुरानी यादें, मन के उपचार और नवीनीकरण के लिए एक कैनवास बन जाती हैं। बचपन की यादों और खोए हुए पलों को फिर से देखना, व्‍यक्ति को उन पलों में दोबारा लौटकर जाने और उन्‍हें ना जी पाने की विवशता की एक कोमल झलक दिखाता है। अंतरंग व्यक्तिगत अनुभवों के साथ सार्वभौमिक मानवीय भावनाओं को जोड़ने की क्षमता रज़ि‍या जी की कविता को जीवन के सभी क्षेत्रों के पाठकों के लिए प्रासंगिक बनाती है।

कोरे कागज़ पर स्मृतियाँ

आकृति बनाने लगी

फिर तितली बनकर उड़ने लगी

फूल-सा खिलने लगी।

और

आज फिर मन करता है

अपने बचपन में लौटूं

देखूँ अपनी स्लेट, जिस पर हम

अनगनित गलतियाँ करते थे

पर उसे मिटाना जानते थे।

इसी तरह “तमिल स्त्रियाँ” नामक कविता कामकाजी तमिल महिलाओं के दैनिक जीवन में उनके लचीलेपन को दर्शाती है। यह परंपरा और आधुनिकता के उनके सहज मिश्रण को दर्शाती है, क्योंकि वे घरेलू ज़ि‍म्मेदारियों और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच तालमेल बिठाती हैं। ट्रेनों में खुद को सजाती और संघर्षों के बावजूद फूलों और चंदन जैसे सांस्कृतिक प्रतीकों को गले लगाती महिलाओं की विशद कल्पना उनकी विरासत से उनके अटूट संबंध को उजागर करती है। हालाँकि, फटी एड़ियों और बुनियादी ज़रूरतों को खरीदने में असमर्थता का स्पष्ट उल्लेख उनके जीवन के उपेक्षित पहलू को उजागर करता है। यह कविता इस बात की एक सौम्य लेकिन प्रभावशाली आलोचना है कि कैसे समाज अक्सर महिलाओं के बलिदानों को नज़रअंदाज़ करता है।

ट्रेन में बैठते ही

बैग से निकाल लेती हैं कंघी

पर्स में लगे दर्पण देख

संवार लेती हैं केश

फिर खोंस लेती हैं उसमें

फूलों का गजरा,

न मिले फूल तो

लगा लेती हैं तुलसी का पत्ता ही,

लगाती हैं फिर

माथे पर चंदन और रोली,

पहनती हैं कुछ गहने

पीले रंगों वाली

इस तरह वह अपनी

परम्परा का निर्वाह करना

कभी नहीं भूलतीं।

कलात्मक शिल्प कौशल

डॉ. रजिया की काव्य शैली काव्‍य की सुलभता और गहराई की विशेषता है। वह सरलता को परिष्कार के साथ कुशलता से मिलाती हैं, यह सुनिश्चित करती हैं कि उनका संदेश अलग-अलग साहित्यिक रुचियों वाले पाठकों तक पहुँचे। रचनाओं में उन्‍होंने उत्‍तम शब्दों का चयन किया है। उनके रूपक विचारोत्तेजक हैं और उनकी लय जीवन की लय को दर्शाती है।

संग्रह के भीतर संरचनात्मक विविधता पाठक को बांधे रखती है। “सच-झूठ” जैसी छोटी, परंतु प्रभावशाली कविताएँ कुछ ही पंक्तियों में तीखे सच को बयां कर देती हैं, जबकि “मानसिक गुलामी” जैसी कविताएँ सांस्कृतिक और धार्मिक शोषण की परत-दर-परत आलोचनाओं को उजागर करती हैं। इन पंक्तियों में कवयित्री कहती हैं-

लोगों के इसी आस्था का

कुछ मुल्लाओं और बाबाओं ने

बना लिया धंधा अपने फायदे के लिए

जिसमें उलझाए रख हमें,

अपने धंधे को चमकाते रहते

और उसमें पि‍सते हैं

असंख्य गरीब अनपढ़ लोग।

प्रत्येक कविता को सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है, जिसमें व्यक्तिगत और राजनीतिक, काव्यात्मक और व्यावहारिक दोनों ही बातें समाहित हैं।

आशा और बदलाव की आवाज़

“ग्रहण काल” को जो चीज़ वास्तव में असाधारण बनाती है, वह है इसकी अटूट आशावादिता। दर्द, अन्याय और अस्तित्वगत संकटों के विषयों में तल्लीन होने के बावजूद, कविताएँ संभावना की भावना से ओत-प्रोत हैं।

डॉ. रज़ि‍या अपनी काव्‍य कृतियों के साथ मौलिकता का जश्न मनाती प्रतीत होती हैं, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि यह कुछ लोगों की ईमानदारी है जो दुनिया को बनाए रखती है। मानवता के उद्धार की क्षमता में यह विश्वास संग्रह में व्याप्त है, जो इसे वर्तमान की आलोचना और भविष्य के लिए घोषणा पत्र दोनों बनाता है।

“प्रजातंत्र से राजतंत्र की ओर” कविता लोकतांत्रिक आदर्शों के क्षरण और जाति और धार्मिक विभाजन की निरंतरता की आलोचना करती है। यह सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच के अलगाव को रेखांकित करती है, जिसका श्रम वास्तव में राष्ट्र को बनाए रखता है। रज़ि‍याजीने सत्ता की गतिशीलता का तीखा अवलोकन किया है - जहाँ नेता अपने कर्तव्यों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अंधी प्रशंसा में डूबे रहते हैं - जो शासन में जवाबदेही के महत्व की याद दिलाता है।

“पर सत्ता में बैठे नेता

भूल बैठते हैं, अपना कर्म

जब-जब आप

जपने लगते हो

माला लिए उनका नाम।”

और “दीमक” नामक कविता में दीमक के रूपक का उपयोग राष्ट्र की एकता को नष्ट करने वाली विभाजनकारी और शोषक ताकतों के प्रतीक के रूप में प्रभावी ढंग से किया गया है। कवयित्री,सत्ता में बैठे लोगों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली चालाकीपूर्ण रणनीति के बारे में चेतावनी देती हुई आग्रह करती हैं, जिससे व्यवस्थागत असमानताएँ और वंचितों की उपेक्षा होती है। भोजन के लिए भटकते और शिक्षा से वंचित बच्चों की आंतरिक कल्पना, सामाजिक संरचनाओं की आलोचना को रेखांकित करती हैं।

वादे जो कभी पूरे नहीं हुए

ना कभी बच्चे नहीं जा पाए

माँ सरस्वती के दर पर

न पढ़ पाए

न ही खेलने के उम्र में खेल पाए

अपने हमउम्र बच्चों के साथ

कविता “उखाड़ना होगा!” व्यवस्थागत उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ़ कार्रवाई का एक स्पष्ट आह्वान है। कवयित्री रूपकात्मक रूप से धरती माता के दिल में ठोकी गई "कीलों" और राष्ट्रीय सद्भाव को खतरे में डालने वाले "खरपतवारों" को हटाने का आग्रह व उद्घोष करती हैं। यह कविता एक क्रांतिकारी भावना का प्रतीक है, जो साझा विरासत और प्राकृतिक संसाधनों को लालच और शोषण से बचाने के लिए सामूहिक प्रतिरोध को प्रोत्साहित करती है।

कवयित्री कहती हैं-

उखाड़ना होगा

उन कीलों को जो

ठोके गये हैं

धरती माँ के सीने पर।

उखाड़ना होगा

उन सब खरपतवारों को

जो नष्ट कर देना चाहते हैं

देश की हरयाली

और खुशहाली को।

अत: डॉ. रज़िया की काव्य कृति “ग्रहण काल” केवल कविताओं का संग्रह नहीं, बल्कि अनुभवों, भावनाओं और अंतर्दृष्टि का अद्वितीय संगम है। यह पाठकों से गहरे जुड़ाव की अपेक्षा करती है और उन्हें आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती है। यह कृति सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने का साहस रखती है, निराशाओं में दिलासा देती है और दृढ़ निश्चयी व्यक्तियों को नई ऊर्जा प्रदान करती है।

“ग्रहण काल” साहित्य की परिवर्तनकारी शक्ति का प्रतीक है और डॉ. रज़िया की सृजनात्मक प्रतिभा का प्रमाण भी। यह पुस्तक केवल एक कविताओं का संग्रह नहीं, बल्कि एक प्रेरणादायक प्रकाशस्तंभ है जो पाठकों के मनोभावों को रोशन करता है, उनके आघातों को उपचारित करता है और बेहतर भविष्य की आशा जगाने के लिए प्रेरित करता है।

इस संग्रह की कविताएँ विविध विषयों को गहराई और खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करती हैं, जो कवयित्री के सामाजिक सरोकारों और उनके दृष्टिकोण की व्यापकता को दर्शाती हैं। अभिव्यक्ति का प्रवाह और भी निखर कर आता है। जो इन कविताओं में अंतर्निहित संदेर्शों को पाठकों तक और अधिक प्रभावी ढंग से पहुँचाने में सहायक होगा।

112 पृष्ठों में सजी इस कृति का सुंदर आवरण और गहन विषयवस्तु इसे एक अनिवार्य पठनीय पुस्तक बनाते हैं। डॉ. रज़िया को “ग्रहण काल” के सफल प्रकाशन के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ!

- डॉ. सरोज सिंह
विभाग के प्रमुख/ असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
श्री शंकरलाल सुंदरबाई शसुन जैन महिला कॉलेज,
चेन्नई (तमिलनाडु) - 17

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