समीक्षा-आलोचना की जरूरत क्यों? | महत्वपूर्ण विचार और विश्लेषण

Dr. Mulla Adam Ali
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Why is there a need for review and criticism? important thoughts and analysis by B. L. Achha ji, Samiksha aur Alochana.

Review and Criticism

samiksha aur alochana

जानिए समीक्षा और आलोचना की आवश्यकता क्यों है। हिंदी साहित्य और रचनात्मक विकास में समीक्षा-आलोचना की भूमिका, महत्व और प्रभाव पर गहराई से विचार।

समीक्षा-आलोचना की जरूरत क्यों?

महत्वपूर्ण विचार और विश्लेषण

- बी. एल. आच्छा

         "चित्रलेखा" उपन्यास के अंत में रत्नांबर की ये पंक्तियां सदैव ध्यान खींचती हैं - "यह मेरा मत है-तुम लोग इससे सहमत हो या न हो। मैं तुम्हें बाध्य नहीं करता।और न कर सकता हूं।जाओ और सुखी रहो। यह मेरा तुम्हें आशीर्वाद है।" इन पंक्तियों में भगवतीचरण वर्मा ने पाठकीय लोकतंत्र को खुला आकाश दिया है। दरअसल लेखक का लक्ष्य ही पाठक होता है। यों आलोचक को लेखक- पाठक के बीच तीसरा फालतू आदमी भी कहा गया है।और जब कभी लेखक अपनी रचना की बात करता है तो अज्ञेय कहते हैं -"कथा का विश्वास करो, कथाकार का नहीं।" तो क्या लेखक और पाठक के बीच इस बीचवान की जरूरत नहीं है। तो किस कारण बरसों से यह आलोचक रचना और पाठक के बीच अपनी जड़ जमाए हुए है।क्यों आलोचना के शास्त्र रचे गये हैं। विधाओं के लक्षण फ्रेम किये गये हैं। फ्रेम को भी कितना तोड़ा- भांजा भी है। मुश्किल यह कि आलोचक की बीचवान सत्ता लेखकों को खलती भी है और यह भी शिकायत रहती है कि विधा या लेखक को समर्थ आलोचक नहीं मिले।

       यह सही है कि सृजन की सारी उम्मीदों का मुकाम पाठक ही है। संदेश की दृष्टि से भी और पुस्तक - बाजार की दृष्टि से भी। पर पाठक के भी दो स्तर तो दिखेंगे ही- एक प्रभावकीय, दूसरा प्रबोधकीय स्तर। इसीलिए कृति से साक्षात्कार में पाठकीय प्रतिक्रिया के स्तरभेद भी अलग-अलग दिखते हैं। फिर आलोचक जिस शास्त्रीयता, शास्त्रीयता के अतिक्रमण से नवाचार, जीवन सापेक्षता, विचारधाराओं के संश्लेष की बात करता है;वे पाठकीय सरोकारों से वास्ता रखते हैं? क्या आलोचकों के दृष्टिभेद और रचना के ताप की विश्लेषण क्षमता कभी विचारधारा से बंधी रहती है। कभी सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के रुचि भेद से,कभी साहित्य में नवागत साहित्य के प्रति रुखेपन या पुराने साहित्य से अत्यधिक लगाव से नये के साक्षात्कार में उपेक्षा भी होती है? आखिर कवि का ताप और उसकी वैयक्तिक विशिष्टता जमी-जमाई दृष्टि से मेल नहीं खाती तो स्वचालित कविता के बरअक्स घनानंद लिख ही जाते हैं- " लोग हैं लागि कवित्त बनावत,मोहि तो मोरे कवित्त बनावत ।" जब इसे पहचान मिली तो रीति स्वच्छंद काव्यधारा बन गयी।

       ऐसा नहीं कि आलोचकों में मतभेद नहीं होते और उनकी टकराहटें रचना के अन्तर्लोक को उजागर नहीं करतीं। पर जब वे गुटीय या विचारधारा से बंधकर बात करते हैं, तो शब्द-युद्ध आघात-प्रतिघात की हल्की शब्दावली में धंस जाते हैं। यद्यपि दृष्टि का स्वातंत्र्य अपनी जगह है। मुक्तिबोध ने 'कामायनी- एक पुनर्मूल्यांकन 'पुस्तक लिखी तो विचारधारा की छाया साफ नजर आई। तब सांस्कृतिक दृष्टि से जिस आनंदवाद की चर्चा हुई तो उसे भी एकांतिक माना गया। डॉ इन्द्रनाथ मदान ने कामायनी की इन दोनों विश्लेषण धाराओं से अलग यथार्थ से स्वप्न में छलांग कहा तो यह भी कामायनी के भीतर की राह बनी। मतभेद इस मुद्दे पर भी कि समीक्षा या आलोचना आभ्यंतर हो या साहित्येतर दृष्टियों से लक्षित बहिर्मुखी। जब साहित्य "नियतिकृत नियमरहितां" कहा जाता है, तो ये गुट और बाड़े रचना की नियति को बाड़ों में क्यों धकेलते हैं? क्या तमाम वैचारिक अनुलोम-विलोम के कामायनी की कालसापेक्षता और उत्कृष्टता आज भी बरकरार नहीं है? और मुश्किल तो यह है कि सारी लड़ाइयाँ शब्दों की सरहद पर, गुट के भीतर-बाहर तक बरकरार हैं। डॉ.नामवर सिंह की पुस्तक 'कविता के नये प्रतिमान' आई तो तो कुछ प्रगतिशील लेखकों ने उसे कलावादी भी कहा।जब 'दूसरी परम्परा की खोज' पुस्तक आई तो इसे भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बीच की पॉलीमिक्स कहा। डॉ रामविलास शर्मा के आलोचक को तो प्रगतिशील आलोचना में कोष्ठक में डाल दिया।

        खैर, यह तो गंभीर आलोचना दृष्टि का परिदृश्य है। पर आज जब समीक्षा या आलोचना 'भाषा के सिंह द्वार' से रचना का साक्षात्कार नहीं करती और न ही मनोविज्ञान- समाजशास्त्र जैसी साहित्येतर दृष्टि से संगत बिठाती है, तो सोशल मीडिया या साहित्यिक पत्रकारिता में उसकी स्थिति कैसी है? और इन परिदृश्यों में समीक्षक- आलोचक की हैसियत कैसी है? यह भी कि क्या वे पारस्परिक प्रशंसा क्लब बन गये हैं? मित्रवाद उनकी धुरी बनती जा रही है? वे कृति के उजले पक्ष को विकीर्ण करते हैं, श्याम पक्ष के खरेपन को व्यक्त नहीं करते? ऐसे में आलोचना की डायनेमिक्स खतरों से टकराती नहीं है। ऐसी समीक्षाएँ प्रकाशकों के लिए बाजार भले ही उपलब्ध करवा दें, पर अच्छी कृतियां इस परिदृश्य में अपना रचनात्मक ताप पाठकों तक नहीं पहुंचा पातीं। ऐसी समीक्षाओं में लेखक की ही रुचि अधिक होती है। विमोचन प्रसंगों में या तो किताब को वलय में रखकर बाहर-बाहर की परिक्रमा कर ली जाती है या प्रशंसा धर्मी समीक्षा से आयोजन को साध लिया जाता है। उनमें यथार्थ और शिल्प के उस हिस्से की बात की जाती है, जो पिष्ट- पेषित हो सकती है।या रचना का ताप समीक्षा / आलोचना को नये मान के लिए कितना बाध्य करती है। क्याऐसे रचना की पड़ताल में समीक्षा या आलोचना की जरूरत क्या है?आलोचना/समीक्षा किसी पुस्तक की अंतर्वस्तु और समाज- सापेक्षता के मूल्यांकन में कितनी सहायक हो सकती है। यह भी कि समीक्षा के विधापरक स्वरूप से रचना की समीक्षा कितनी उपयोगी हो आलोचना को वस्तुपरक या कृतिपरक होना चाहिए? क्या रचना को सामाजिक सरोकारों के साथ मूल्यात्मक प्रतिमानों से गुजरना चाहिए? देखा जाए तो कुछ कृतियां आलोचना के नये मानदंड बनवाने के लिए बाध्य करती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि सारे पुराने मान तिरस्करणीय हैं। आज नयी और समकालीन कविता का अलंकार शास्त्र बदला हुआ है। उसके सादृश्य और लयगत संरचनाएं बदल गयी हैं। कुछ कवियों में गद्यात्मक संरचनाएं उनकी पहचान बन गयी हैं। तर्क, बौद्धिकता और पेशबंदी ने रसात्मक व्यापार पर सवाल खड़े किये हैं। फिर भी क्या व्यक्तिहृदय से लोकहृदय की पहचान खत्म हो गयी है? रंजकता और बौद्धिकता में खटराग पैदा हो गया है? क्या शब्द-लय सूखती जा रही है और गद्यात्मक वितान अर्थलय का संपोषक है? क्या निर्णयात्मक आलोचना का युग समाप्त हो गया है? क्या 'कांतासम्मित उपदेश' से छिटकककर केवल यथार्थ ही सृजन-लक्ष्य बन गया है?क्या भावनात्मक संचार की जमीन सूख रही है? क्या विचारधारा की पोषकता कृति की लक्ष्यधर्मिता है? क्या मिथकीय दृष्टि से युगीन चेतना की झंकृति कुछ नया प्रतिमान या संदेश दे जाती है?

    बहुत सारे सवाल हैं, जो संस्कृत में 'उपमा कालिदासस्य' या हिन्दी में 'सूर सूर तुलसी शशि' की धुरी से हटकर बहुआयामी बने हैं। यह अलग बात है कि आज भी स्चनागत विशेषताओं की प्रतिध्वनि के कारण धूमिल को 'कठघरे का कवि' कह दिया जाता है। या दिनकर को 'युगचारण', शमशेर को 'कवियों का कवि'। पर ये गहरे विश्लेषण का परिणाम है‌। समीक्षा या आलोचना सृजन और लेखकीय दृष्टि को खोलने के औजार देती है। यदि विचारधाराओं से रूबरू हो कर उन्हें नेपथ्य में रखा जाए तो वस्तुपरक मूल्यांकन की दिशा जीवन सापेक्ष्य मूल्यों के साथ प्रशस्त हो सकती है। रचना में आलोचकीय प्रवेश यदि रचना की भाषा के सिंहद्वार से हो और उसी की अनुगूंज के केन्द्र में मूल्यगत विश्लेषण हो तो रचना से भलीभाँति साक्षात्कार हो सकता है। पहला आयाम तो यही कि रचना की अंतर्वस्तु, विधा,शैलीगत ट्रीटमेन्ट, भाषायी स्पन्द और कथ्य के नयेपन के अन्वेषण की जरूरत है।

       फिर उत्कृष्टता का पैमाना क्या है? क्या रंजकता उसकी विशिष्टता है।रचना की विषयगत कालक्रमिकता में नया क्या है? रचना के बुनियादी सरोकार क्या हैंऔर वे अपने समय को कितनी पहचान देते हैं?रचना में पाठकीय भावांतर की शक्ति और मूल्यगत बदलावों का मूल्यमान कितना समर्थ है? वैचारिक संवेदन के उन्मेष और प्रेषणीय क्षमता की चालक शक्ति कैसी है? रचना में गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करने की क्षमता कैसी है? राहुल सांकृत्यायन की' भागो नहीं दुनिया को बदलो', 'घुमक्कड़ शास्त्र', या दिनकर के 'कुरुक्षेत्र' में आवेगात्मक संचार, या मैथिलीशरण गुप्त की ' भारत भारती' में युगीन प्रबोध या धर्मवीर भारती के 'अंधा युग,' मुक्तिबोध के' अँधेरे में' जैसी कृतियों में जो 'अंडरटोन' है, उसी तरह के संक्रमण का आंशिक रूप साहित्य में नयी पीढ़ी को आश्वस्त करता है?खैर ,ये तो उदाहरण हैं। यदि श्रेष्ठतम रचनाओं की आंशिक झलक भी मिले तो समीक्षा या आलोचना का केंद्रीय बिंदु बनना चाहिए।

     इस आश्वस्ति के लायक समकाल की अनेक विधाओं की अनेक रचनाएँ हैं। पर आज पुस्तक प्रकाशन में अर्थ व्यंजनात्मक स्फोट भी मौजूद है पर पुस्तक- प्रकाशन विस्फोट अधिक है। लेखक और समीक्षक परस्पर सहकारी संस्थाओं की दिशा में व्यस्त हैं। जैसे आज के लोकतंत्र में वोटर किसी भी उम्मीदवार को नाराज नहीं करना चाहता, उसीतरह समीक्षक ‌भी अस्सी-बीस के अनुपात में प्रशंसा- आलोचना में अपने को निरपेक्ष दिखाना चाहता है। फतवाधारी समीक्षाओं के अंत की दृष्टि से यह कारगर जरूर है, पर रचना की शक्ति और उसके चेतस का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। अनुभव की विरलता और शिल्पगत प्रेषणीयता की पड़ताल रचना को भी मान देती है और शास्त्रीय दृष्टि को भी नवनवीन आयाम देती है।

          लेखक- मुखी समीक्षा के अपने खतरे हैं। बंधे हुए खेमों की समीक्षा दृष्टि में दूसरी तरह के। खेमों से जुड़ी समीक्षाएँ पाठकों के लिए बाड़ खड़ी कर देती है। आत्मप्रचार और सोशल मीडिया पर चिपकाई गयी समीक्षाएँ न लेखक को ऊंचाई देती हैं, न आलोचनात्मक साक्षात्कार में नया जोड़ती हैं। विविधताभरी विशाल दुनिया और अनुभवों की विशिष्टता रचना की पहचान है।समाज सापेक्षता, शिल्पगत ट्रीटमेंट का नवाचार पाठक को बेधता है। इस नयेपन के लिए लेखक कितना टकराता है, कितना जोड़ता है। परंपरा बोध से संपृक्त होकर किस नये मुहाने पर ले जाता है।शब्दों के जुलूस पाठकों को कितना संक्रांत करते हैं, कितना ग्रहणशील बनाते हैं। 

     आलोचना का प्रबोधन स्तर पाठक को भी समृद्ध करता है। रचना में लेखक की अंतर्वृत्तियों, सृजनात्मक मौलिकता, सृजन की विराटता - लघुता का विश्लेषण रचना की भीतरी अन्तर्यात्रा की गंभीरता का परिणाम है। ऐसे ही उसके शिल्प और भाषायी प्रयोग से संप्रेषणीय नवीनता की पहचान होती है। यह भी कि वे कौन सी प्रेरणाएँ हैं, कौन से सामाजिक सरोकार हैं ;जो पाठक में उद्‌वेलन लाते हैं। रचनाकार के आंतरिक व्यक्तित्व और उसकी राजनीति का प्रदेय पाठक के सोच का हिस्सा बनता है।सतर्क आलोचना विमर्श की पीठिका बन जाती है।

       यही नहीं इससे समकाल की काव्यधाराएँ विशिष्ट पहचान बनाती हैं। प्रयोगी शिल्प की पहचान होती है। बल्कि आलोचना की बीज शब्दावली भी समृद्ध होती है।आलोचकों के नजरिये के साथ ऐसी धाराएँ सही संज्ञान पाती हैं। जिस छायावाद को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रहस्य और शैलीगत विशेषता कहा। जिसे अस्पष्ट, दुरूह और पलायनवादी कहा गया। पंडित नंददुलारे वाजपेयी ने उसे सांस्कृतिक उन्मेष की दृष्टि से परखा तो आधुनिक हिंदी काव्य का स्वर्णयुग बन गया। यही बात अन्य विधाओं की निरंतर आलोचना और उसके फलित को रेखांकित करती हैं।बल्कि नयी संज्ञाओं- विशेषणों से पहचान मिलती है। इतिहासबद्धता और इतिहास दृष्टि भी विकसित होती है। यद्यपि ये बातें कृति की समीक्षा में उतनी जरूरी नहीं होती हैं।वे कृति केंद्रित होती हैं।पर आलोचना की गहरी पड़ताल में व्यक्ति और प्रवृत्ति की दृष्टि से अनुसंधान का विषय बन जाती हैं। समर्थ आलोचना बाड़े से हटकर कृति को चीरती हुई आती हैं,तो कृति के अंतरंग संसार को व्यंजित करते हुए उस विधा में उल्लेखनीय बना देती है।

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